उदयपुर के प्रसिद्ध मंदिर

उदयपुर के प्रसिद्ध मंदिर का इतिहास , उदयपुर में सास बहू का मंदिर , निर्माण तथा स्थिति , मेवाड़ से सम्बंध , नामकरण , वास्तुकला , नक़्क़ाशी , बहू का मंदिर , मंदिर का क्षरण , 

उदयपुर के प्रसिद्ध मंदिर

उदयपुर के प्रसिद्ध मंदिर का इतिहास :-
वैसे तो हिन्दू धर्म और इसकी मिथकीय कहानियों में इंसान के पाप-पुण्य के लिए काफी कुछ लिखा गया है पाप से निवारण के लिए कई समाधान सुझाए गए हैं लेकिन राजस्थान के उदयपुर में स्थित एक शिव मंदिर की बात ही जुदा है इस मंदिर के प्रांगण में एक कुंड है और ऐसा माना जाता है कि इस कुंड में डुबकी लगाने मात्र से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं इतना ही नहीं यहां श्रद्धालुओं को पाप मुक्ति सर्टिफिकेट देने की भी व्यवस्था है |
इस शिव मंदिर का नाम गौतमेश्वर महादेव पापमोचन तीर्थ है यह मंदिर प्रतापगढ़ जिले में पड़ता है इस मंदिर के कुंड में डुबकी लगाने वाले शख्स को ‘पाप मुक्ति’ सर्टिफिकेट से नवाजा जाता है. इसके एवज में लोगों को 11 रुपये अदा करने होते हैं इस मंदिर में आजादी के समय से ही डुबकी लगाने और सर्टिफिकेट पाने वालों का रिकॉर्ड दर्ज है 11 रुपये में 1 रुपये सर्टिफिकेट और 10 रुपये दोष निवारण के लिए चार्ज किए जाते हैं इस तीर्थ को आदिवासियों के हरिद्वार के तौर पर जाना जाता है यहां हर साल मई में मेला लगता है और लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं |
हिन्दू धर्म में प्रचलित दंतकथाओं के अनुसार यहां गौतम ऋषि ने एक जानवर की हत्या के बाद दोषमुक्ति के लिए डुबकी लगाई थी इस मंदिर के महंत कन्हैया लाल शर्मा कहते हैं कि इस मंदिर में खेतिहर-किसान अधिक संख्या में आते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि खेती-किसानी में वे जाने-अनजाने कई जानवरों के घोंसले, बिल व अंडों को तबाह कर देते हैं इस अपराधबोध के निवारण के लिए वे यहां दर्शन-स्नान करने आते हैं |

उदयपुर में सास बहू का मंदिर :-
सास बहू का मंदिर राजस्थान में उदयपुर के प्रसिद्ध ऐतिहासिक तथा पर्यटन स्थलों में से एक है। बहू का मंदिर जो सास मंदिर से थोड़ा छोटा है, में एक अष्टकोणीय आठ नक़्क़ाशीदार महिलाओं से सजायी गई छत है। एक मेहराब सास मंदिर के सामने स्थित है। मंदिर की दीवारों को रामायण महाकाव्य की विभिन्न घटनाओं के साथ सजाया गया है। मूर्तियों को दो चरणों में इस तरह से व्यवस्थित किया गया है कि एक-दूसरे को घेरे रहती हैं। मंदिर में भगवान ब्रह्मा, शिव और विष्णु की छवियाँ एक मंच पर खुदी हैं और दूसरे मंच पर राम, बलराम और परशुराम के चित्र हैं।

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निर्माण तथा स्थिति :-
10वीं सदी में निर्मित सास-बहू मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। यह नागदा ग्राम में राष्ट्रीय राजमार्ग 8 पर उदयपुर से 23 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। मंदिर दो संरचनाओं का बना है, उनमें से एक ‘सास’ द्वारा और एक ‘बहू’ के द्वारा बनाया गया है। मंदिर में प्रवेश द्वार नक़्क़ाशीदार छत और बीच में कई खाँचों वाली मेहराब हैं। एक वेदी एक मंडप स्तंभ प्रार्थना हॉल और एक पोर्च मंदिर के दोनों संरचनाओं की सामान्य विशेषताएं हैं।

मेवाड़ से सम्बंध :-
उदयपुर से मात्र 28 किलोमीटर की दूरी पर है जगप्रसिद्ध ‘एकलिंगजी का मंदिर’। इस मंदिर से थोड़ा पहले ही, कच्चे रास्ते पर खड़े हैं वास्तुकला के बेजोड़ नमूने सास-बहू के मंदिर। इन्हीं मंदिरों के आसपास कभी मेवाड़ राजवंश की स्थापना हुई थी। इनकी पहली राजधानी नागदा थी। नागदा के वैभव की याद दिलाने में ये सास-बहू के मंदिर आज भी सक्षम हैं। मेवाड़ राज्य के संस्थापक बप्पा रावल ने अपना प्रारंभिक जीवन यहीं नागदा में व्यतीत किया था। मेवाड़ की यह प्राचीन राजधानी नागदा तो अब ध्वस्त हो चुकी है लेकिन किसी तरह से यहाँ सास-बहू मंदिर बचे रह गए हैं। इन मंदिरों और नागदा के ध्वंसावशेष के आधार पर यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यहाँ कभी उत्कृष्ट कला का विकास हुआ था। मेवाड़ राज्य अपनी स्थापना से ही दिल्ली पर राज्य करने वालों को चुभता रहा था। दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश ने तो इस पर आक्रमण कर इसे ध्वस्त ही कर डाला।

नामकरण :-
विक्रमी संवत ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास बने सास-बहु के इन मंदिरों के बारे में अनुमान है कि मेवाड़ राजघराने की राजमाता ने विष्णु का मंदिर तथा बहू ने शेषनाग के मंदिर का निर्माण कराया था। सास-बहू के द्वारा निर्माण कराए जाने से इन मंदिरों को “सास-बहू के मंदिर” के नाम से पुकारा जाता है। लेकिन, एक अन्य किंवदंती के अनुसार यहाँ पहले भगवान सहस्रबाहु का मंदिर था, जिसका नाम सहस्रबाहु से बिगड़कर सास-बहू हो गया। कारण जो भी रहा हो, आज ये मंदिर उस प्राचीन कला-संस्कृति के उत्कृष्ट नमूने हैं, जो कभी यहाँ फली-फूली थी।

वास्तुकला :-
वास्तुकला के बेजोड़ नमूने ये दोनों मंदिर एक ही परिसर में स्थित हैं। आज दोनों ही मंदिरों के गर्भगृहों में से देव प्रतिमाएँ गायब हैं। मंदिर बनाने वाले कलाकारों ने तत्कालीन परंपरा के अनुसार अपनी बारीक छैनी से समसामयिक जीवन व संस्कृति के अमर तत्वों को इन मंदिरों में उकेरा है। दोनों ही मंदिरों के बरामदों, तोरण-द्वारों व मंडपों को शिल्पकला के उत्कृष्ट नमूनों से सजाया है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर लगी सुर-सुंदरियों की प्रतिमाएँ नारी सौंदर्य का सजीव वर्णन करती-सी प्रतीत होती हैं। नर-नारी जीवन-जगत की गतिविधियों में श्रृंगार, नृत्य, क्रीड़ा और प्रेम आदि की अभिव्यक्ति बड़े सुंदर ढंग से अंकित की गई हैं। मिथुन-युगलों के बीच के प्यार-व्यापार को इतने सुंदर ढंग से दर्शाया गया है कि नर-नारी मूर्तियाँ शारीरिक सौंदर्य की पराकाष्ठा बन गई हैं।

नक़्क़ाशी :-
सुन्दर कारीगरी अद्भुत सूक्ष्म नक़्क़ाशी व भव्यता की दृष्टि से इन दोनों मंदिरों की समानता आबू पर्वत के जगप्रसिद्ध दिलवाड़ा के मंदिरों व रणकपुर के जैन मंदिर से की जा सकती है लेकिन प्राचीनता की दृष्टि से सास-बहू के मंदिर के प्रवेश-द्वार पर बने छज्जों पर महाभारत की पूरी कथा अंकित है। इन छज्जों से लगे बायें स्तंभ पर शिव-पार्वती की प्रतिमाएँ हैं जो खजुराहो की मिथुन मूर्तियों से होड़ लेती-सी प्रतीत होती हैं। तोरणों का अलंकरण तो देखते ही बनता है।

बहू का मंदिर :-
बहू के मंदिर का सभामंडप तो अपने आप में अनूठा है। प्रत्येक स्तंभ पर लगभग चार फुट ऊँची, एक ही पत्थर से निर्मित प्रतिमाएँ लगी हुई हैं। ये नारी प्रतिमाएँ उत्कष्ट कलात्मक रूप में नारी सौंदर्य को दर्शाने के लिए उल्लेखनीय हैं। मंदिर के सामने एक ही भारी पत्थर से बना तोरण है जिसमें तीन द्वार हैं। सास-बहू के दोनों मंदिरों के बीच में ब्रह्मा का मंदिर है। ब्रह्मा जी का मंदिर दोनों से छोटा है, फिर भी वह दोनों से कम नहीं है। इसके गुंबद को देखकर ऐसा लगता है मानों उसे बारीक जाली से ढक दिया गया हो।

मंदिर का क्षरण :-
वैसे तो सास-बहू के ये मंदिर अपने समकालीन अन्य मंदिरों की तुलना में कहीं अच्छी दशा में हैं फिर भी उचित साज-सँभाल के अभाव में ये धीरे-धीरे क्षरण का शिकार होने लगे हैं। समय के थपेड़ों ने मंदिर की दीवारों व मूर्तियों पर कालेपन की परछायीं डालना शुरू कर दी है। गर्भगृहों से आराध्य देवों की मूर्तियाँ गायब हैं। जब आराध्य देवों की मूर्तियाँ ही गायब हों तो फिर मंदिर कैसा? राज्य पुरतत्व विभाग ने यहाँ एक नीला सूचना-पट्ट लगाकर उन्हें संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया है।

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