ब्राह्मण गोत्र सूची

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ब्राह्मण गोत्र सूची

गोत्र और वर्ण अलग क्यों है –
गोत्र पहले आया फिर कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था तय हुई. वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे. बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्ण बदलता रहा. किसी क्षेत्र में किसी गोत्र-विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण में रह गया, तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया.बाद में जन्म के आधार पर जाति स्थिर हो गयी |

यही वजह है कि सभी गोत्र सभी जातियों और वर्णों में हैं. कौशिक ब्राह्मण भी हैं, क्षत्रिय भी. कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण भी हैं, राजपूत भी, पिछड़ी जाति वाले भी वशिष्‍ठ ब्राह्मण भी हैं, दलित भी दलितों में राजपूतों और जाटों के अनेक गोत्र हैं सिंहल-गोत्रीय क्षत्रिय भी हैं, बनिए भी राणा, तंवर, गहलोत-गोत्रीय जाट हैं, राजपूत भी राठी-गोत्रीय जन जाट भी हैं |

गोत्र का इस्तेमाल किन कामों में होता है –
गोत्र का इस्तेमाल आमतौर पर पर विवाह संबंधों और धार्मिक कार्यों में होता है. माना जाता है कि एक ही गोत्र में विवाह नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि मान्यतानुसार इसके सारे सदस्य एक ही मिथकीय पूर्वज की संतान होते हैं हालांकि मौजूदा दौर में ये शर्त औऱ परंपरा शिथिल हुई है लेकिन कई जातियां अब भी इसका कड़ाई से पालन करती हैं गोत्र को एक तरह से रक्त संबंध भी माना जाता है |

कैसे शुरू हुआ गोत्र –
गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों के उन सात वंशों से संबंधित होता है, जो अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हैं। ये सात ऋषि थे-
1.अत्रि
2. भारद्वाज
3. भृगु
4. गौतम
5.कश्यप
6. वशिष्ठ
7.विश्वामित्र

बाद में इसमें एक आठवां गोत्र अगस्त्य भी जोड़ा गया और गोत्रों की संख्या बढ़ती चली गई. जैन ग्रंथों में 7 गोत्रों का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ लेकिन छोटे स्तर पर साधुओं से जोड़कर हमारे देश में कुल 115 गोत्र पाए जाते हैं |

क्या सारे गोत्र एक ही समय पैदा हुए –
एक समय और एक स्‍थान पर गोत्रों की उत्‍पत्ति नहीं हुई है. महाभारत के शान्‍तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्‍यप, वशिष्‍ठ तथा भृगु बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्‍वामित्र तथा अगस्‍त्‍य के नाम जुड़ गए. गोत्रों की प्रमुखता उस समय और बढ़ गई जब जाति व्‍यवस्‍था कठोर हो गई लोगों को यह विश्‍वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे |

गोत्रों में वैवाहिक स्थिति –
एक ही गोत्र के सदस्यों के बीच विवाह निषेध का उद्देश्य निहित दोषों को दूर रखने के अलावा ये भी था कि अन्य प्रभावशाली गोत्रों के साथ संबंध स्थापित कर अपना प्रभाव बढ़ा सकें
बाद में ग़ैर ब्राह्मण समुदायों ने भी इसी प्रथा को अपनाया बाद में क्षत्रियों और वैश्यों ने भी इसे अपनाया इसके लिए उन्होंने अपने निकट के ब्राह्मणों या अपने गुरुओं के गोत्रों को अपना गोत्र बना लिया |

विवाह में आमतौर पर गोत्र को किस तरह देखा जाता है –
एक लड़का-लड़की की शादी के लिए सिर्फ विवाह के लायक लड़के-लड़की का गोत्र ही नहीं मिलाया जाता, बल्कि मां और दादी का भी गोत्र मिलाते हैं इसका अर्थ है कि तीन पीढ़ियों में कोई भी गोत्र समान नहीं होना चाहिए तभी शादी तय की जाती है |

यदि गोत्र समान हैं तो विवाह न करने की सलाह दी जाती है हिन्दू शास्त्रों में एक गोत्र में विवाह करने पर प्रतिबंध इसलिए लगाया गया क्योंकि यह मान्यता है कि एक ही गोत्र या कुल में विवाह होने पर दंपत्ति की संतान अनुवांशिक दोष के साथ उत्पन्न होती है ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता |

क्या गोत्र हमेशा एक ही रहता है –
मनुस्मृति के अनुसार, सात पीढ़ी बाद सगापन खत्म हो जाता है अर्थात सात पीढ़ी बाद गोत्र का मान बदल जाता है. आठवी पीढ़ी के पुरुष के नाम से नया गोत्र शुरू होता है लेकिन गोत्र की सही गणना का पता न होने के कारण हिंदू लोग लाखों हजारो वर्ष पहले पैदा हुए पूर्वजों के नाम से अपना गोत्र चला रहे हैं, जिससे वैवाहिक जटिलताएं भी पैदा हो रही हैं |

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