चोल वंश की वंशावली – चोल वंश प्रश्न उत्तर, चोल प्रशासन की मुख्य विशेषता क्या थी, चोल साम्राज्य के स्थानीय स्वशासन की क्या विशेषता थी, चोल वंश की राजधानी कहाँ थी, चोल वंश का अंत किसने किया, चोल प्रशासन की प्रमुख विशेषता क्या थी, चोल वंश PDF, चोल प्रशासन Drishti IAS, चोल वंश की वंशावली,
चोल वंश सभी दक्षिण भारतीय राजवंशों में सबसे महान था उन्होंने मालदीव और श्रीलंका जैसे समुद्री द्वीपों पर भी शासन किया जो दर्शाता है कि उनके पास बहुत ही कुशल और विशाल नौसैनिक शक्ति थी यहां हम आम जागरूकता के लिए चोल वंश के शासकों की सूची और उनके योगदान का विवरण दे रहे हैं।
चोल साम्राज्य का इतिहास :-
चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था चोल शासकों ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का ‘स्वर्ण युग’ था।
स्थानीय स्वशासन
चोलों की स्थानीय स्वशासन की प्रणाली अनूठी थी अन्य किसी भी भारतीय राज्य में ऐसी व्यवस्था देखने को नहीं मिलती है चोल शासकों की स्थानीय प्रशासन व्यवस्था को वारियम कहा जाता था यह व्यवस्था सीमित प्रणाली पर आधारित थी चोल अभिलेखों में तीन प्रकार के ग्राम सभाओं का उल्लेख मिलता है।
शासन व्यवस्था
चोलो के अभिलेखों आदि से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु जिला कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था चोल ग्रामसभाएँ “उर” या “सभा” कही जाती थीं इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।
चोलों ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना के साथ-साथ इसके प्रशासन की भी समुचित व्यवस्था की थी केंद्रीय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था उसके अधिकार असीम थे।
युवराज को प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था राजा मंत्रियों एवं अनेक पदाधिकारियों की सहायता से शासन करता था।
चोल साम्राज्य का पतन
चोल साम्राज्य के अंतिम शासक कुलोत्तुंग द्वितीय के उत्तराधिकारी निर्बल थे वे अपने राज्य को अक्षुण्ण बना रखने में असफल रहे सुदूर दक्षिण में पाण्ड्य, केरल और सिंहल (श्रीलंका) राज्यों में विद्रोह की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई थी और वे चोलों की अधीनता से मुक्त हो गए समुद्र पार के जिन द्वीपों व प्रदेशों पर राजेन्द्र प्रथम द्वारा आधिपत्य स्थापित किया गया था उन्होंने भी अब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली द्वारसमुद्र के होयसाल और इसी प्रकार के अन्य राजवंशों के उत्कर्ष के कारण चोल राज्य अब सर्वथा क्षीण हो गया चोलों के अनेक सामन्त इस समय निरन्तर विद्रोह के लिए तत्पर रहते थे और चोल राजवंश के अन्तःपुर व राजदरबार भी षड़यत्रों के अड्डे बने हुए थे। इस स्थिति में चोल राजाओं की स्थिति सर्वथा नगण्य हो गई थी।
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