जैसलमेर की स्थापत्यकला

जैसलमेर दुर्ग, जैसलमेर मंदिर, जैसलमेर पटवा की हवेली, जैसलमेर महाराजा, जैसलमेर दुर्ग के मंदिर, जैसलमेर चित्र शैली, बादल महल जैसलमेर, जैसलमेर वंशावली, जैसलमेर की स्थापत्यकला,

जैसलमेर की स्थापत्यकला

जैसलमेर का निर्माण कब वह किसने करवाया , जैसलमेर का इतिहास , जैसलमेर की विशेषताएं , जैसलमेर की भौगोलिक स्थिति , जैसलमेर का भूगोल , जैसलमेर का मौसम , जैसलमेर का शासक , जैसलमेर की स्थापत्यकला , जैसलमेर की चित्रकला , जैसलमेर की भाषा , जैसलमेर का साहित्य , जैसलमेर का संगीत , जैसलमेर का धर्म ,

जैसलमेर का निर्माण कब वह किसने करवाया :-
जैसलमेर भारत के राजस्थान प्रांत का एक शहर है। भारत के सुदूर पश्चिम में स्थित धार के मरुस्थल में जैसलमेर की स्थापना भारतीय इतिहास के मध्यकाल के प्रारंभ में 1178 ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज रावल-जैसल द्वारा की गई थी। रावल जैसल के वंशजों ने यहाँ भारत के गणतंत्र में परिवर्तन होने तक बिना वंश क्रम को भंग किए हुए 770 वर्ष सतत शासन किया, जो अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है। जैसलमेर राज्य ने भारत के इतिहास के कई कालों को देखा व सहा है। सल्तनत काल के लगभग 300 वर्ष के इतिहास में गुजरता हुआ यह राज्य मुगल साम्राज्य में भी लगभग 300 वर्षों तक अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम रहा। भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना से लेकर समाप्ति तक भी इस राज्य ने अपने वंश गौरव व महत्व को यथावत रखा। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात यह भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गया। भारतीय गणतंत्र के विलीनकरण के समय इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 16062 वर्ग मील के विस्तृत भू-भाग पर फैला हुआ था। रेगिस्तान की विषम परिस्थितियों में स्थित होने के कारण यहाँ की जनसंख्या बींसवीं सदी के प्रारंभ में मात्र 76244 थी।
जैसलमेर जिले का भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था। महाभारत के युद्ध के बाद बड़ी संख्या में यादव इस ओर अग्रसर हुए व यहां आ कर बस गये। यहां अनेक सुंदर हवेलियां और जैन मंदिरों के समूह हैं जो 12वीं से 15वीं शताब्‍दी के बीच बनाए गए थे।

जैसलमेर का इतिहास :-
सँकरी गलियों वाले जैसलमेर के ऊँचे-ऊँचे भव्य आलीशान भवन और हवेलियाँ सैलानियों को मध्यकालीन राजशाही की याद दिलाती हैं। शहर इतने छोटे क्षेत्र में फैला है कि सैलानी यहाँ पैदल घूमते हुए मरुभूमि के इस सुनहरे मुकुट को निहार सकते हैं। माना जाता है कि जैसलमेर की स्थापना भाटी , राव जैसल ने 12 वीं शताब्दी में की थी। इतिहास की दृष्टि से देखें तो जैसलमेर शहर पर खिलजी, राठौर, मुगल, तुगलक आदि ने कई बार आक्रमण किया था। इसके बावजूद जैसलमेर के शाही भवन राजपूत शैली के सच्चे द्योतक हैं

यह भी पढ़े : जैसलमेर के प्रमुख मंदिर

जैसलमेर की विशेषताएं :-
जैसलमेर राज्य भारत के मानचित्र में ऐसे स्थल पर स्थित है जहाँ इसका इतिहास में एक विशिष्ट महत्व है। भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा पर इस राज्य का विस्तृत क्षेत्रफल होने के कारण अरबों तथा तुर्की के प्रारंभिक हमलों को यहाँ के शासकों ने न केवल सहन किया वरन दृढ़ता के साथ उन्हें पीछे धकेलकर शेष राजस्थान, गुजरात तथा मध्य भारत को इन बाहरी आक्रमणों से सदियों तक सुरक्षित रखा। राजस्थान के दो राजपूत राज्य, मेवाइ और जैसलमेर अनय राज्यों से प्राचीन माने जाते हैं, जहाँ एक ही वंश का लम्बे समय तक शासन रहा है। हालाँकि मेवाड़ के इतिहास की तुलना में जैसलमेर राज्य की ख्याति बहुत कम हुई है, इसका मुख्य कारण यह है कि मुगल-काल में बी जहाँ मेवाड़ के महाराणाओं की स्वाधीनता बनी रही वहीं जैसलमेर के महारावलों द्वारा अन्य शासक की भाँती मुगलों से मेलजोल कर लिया जो अंत तक चलता रहा। आर्थिक क्षेत्र में भी यह राज्य एक साधारण आय वाला पिछड़ा क्षेत्र रहा जिसके कारण यहाँ के शासक कभी शक्तिशाली सैन्य बल संगठित नहीं कर सके। फलस्वरुप इसके पड़ौसी राज्यों ने इसके विस्तृत भू-भाग को दबा कर नए राज्यों का संगठन कर लिया जिनमें बीकानेर, खैरपुर, मीरपुर, बहावलपुर एवं शिकारपुर आदि राज्य हैं। जैसलमेर के इतिहास के साथ प्राचीन यदुवंश तथा मथुरा के राजा यदु वंश के वंशजों का सिंध, पंजाब, राजस्थान के भू-भाग में पलायन और कई राज्यों की स्थापना आदि के अनेकानेक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक प्रसंग जुड़े हुए हैं।
सदियों तक आवागमन के सुगम साधनों के आभाव में यह राज्य देश के अनय प्रांतों से लगभग कटा सा रहा। इस कारण बाहर के लोगों के जैसलमेर के बारे में बहुत कम जानकारी रही है। सामान्यत: लोगों की कल्पना में यह स्थान धूल व आँधियों से घिरा रेगिस्तान मात्र है। परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है, इतिहास एवं काल के थपेड़े खाते हुए भी यहाँ प्राचीन, संस्कृति, कला, परंपरा व इतिहास अपने मूल रूप में विधमान रहा तथा यहाँ के रेत के कण-कण में पिछले आठ सौ वर्षों के इतिहास की गाथाएँ भरी हुई हैं। जैसलमेर राज्य ने मूल भारतीय संस्कृति, लोक शैली, सामाजिक मान्यताएँ, निर्माणकला, संगीतकला, साहित्य, स्थापत्य आदि के मूलरुपंण बनाए रखा।

जैसलमेर की भौगोलिक स्थिति :-
जैसलमेर राज्य भारत के पश्चिम भाग में स्थित थार के रेगिस्तान के दक्षिण पश्चिमी क्षेत्र में फैला हुआ था। मानचित्र में जैसलमेर राज्य की स्थिति 2001 से 2002 उत्तरी अक्षांश व 69029 से 72020 पूर्व देशांतर है। परंतु इतिहास के घटनाक्रम के अनुसार उसकी सीमाएँ सदैव घटती बढ़ती रहती थी। जिसके अनुसार राज्य का क्षेत्रफल भी कभी कम या ज्यादा होता रहता था। जैसलमेर का क्षेत्र थार के रेगिस्तान में स्थित है। यहाँ दूर-दूर तक स्थाई व अस्थाई रेत के ऊंचे-ऊंचे टीले हैं, जो कि हवा, आंधियों के साथ-साथ अपना स्थान भी बदलते रहते हैं। इन्हीं रेतीले टीलों के मध्य कहीं-कहीं पर पथरीले पठार व पहाड़ियाँ भी स्थित हैं। इस संपूर्ण इलाके का ढाल सिंध नदी व कच्छ के रण अर्थात् पश्चिम-दक्षिण की ओर है।

जैसलमेर का भूगोल :-
भूमिजैसलमेर राज्य का संपूर्ण भाग रेतीला व पथरीला होने के कारण यहाँ का तापमान मई-जून में अधिकतम 47 सेंटीग्रेड तथा दिसम्बर-जनवरी में न्यूनतम 05 सेंटीग्रेड रहता है। यहाँ संपूर्ण प्रदेश में जल का कोई स्थाई स्रोत नहीं है। वर्षा होने पर कई स्थानों पर वर्षा का मीठा जल एकत्र हो जाता है। यहाँ अधिकांश कुंओं का जल खारा है तथा वर्षा का एकत्र किया हुआ जल ही एकमात्र पानी का साधन है।

जैसलमेर का मौसम :-
जनवरी-मार्च तक यहां ठंड पड़ती है और तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। अप्रैल-जून तक यह खूब तपता है और औसत तापमान 45 डिग्री सेल्सियस रहता है। इस मौसम में जब मध्याह्न में सूर्य सिर पर होता है और उसकी किरणों थार के रेगिस्तान पर पड़ती है तो सुनहरी रेत को देख ऐसा लगता है मानो चहुंओर सोने के कण बिखरे पड़े हों। ऐसे मनमोहक दृश्य का आनंद लेने के लिए पर्यटक भीषण गर्मी की भी परवाह नहीं करते और यहां घुमक्कड़ी करते फिरते हैं। अक्टूबर से दिसंबर तक मानसून और ठंड के बीच के मौसम में यहां आप ठंड और बारिश दोनों तरह के मौसम का आनंद उठा सकते हैं।

जैसलमेर का शासक :-
जैसलमेर राज्य की स्थापना भारतीय इतिहास के मध्यकाल के आरंभ में 1178 ई. के लगभग यदुवंशी भाटी के वंशज रावल-जैसल के द्वारा किया गया। भाटी मूलत: इस प्रदेश के निवासी नहीं थे। यह अपनी जाति की उत्पत्ति मथुरा व द्वारिका के यदुवंशी इतिहास पुरुष कृष्ण से मानती है। कृष्ण के उपरांत द्वारिका के जलमग्न होने के कारण कुछ बचे हुए यदु लोग जाबुलिस्तान, गजनी, काबुल व लाहौर के आस-पास के क्षेत्रों में फैल गए थे। कहाँ इन लोगों ने बाहुबल से अच्छी ख्याति अर्जित की थी, परंतु मद्य एशिया से आने वाले तुर्क आक्रमणकारियों के सामने ये ज्यादा नहीं ठहर सके व लाहौर होते हुए पंजाब की ओर अग्रसर होते हुए भटनेर नामक स्थान पर अपना राज्य स्थापित किया। उस समय इस भू-भाग पर स्थानीय जातियों का प्रभाव था। अत: ये भटनेर से पुन: अग्रसर होकर सिंध मुल्तान की ओर बढ़े। अन्तोगत्वा मुमणवाह, मारोठ, तपोट, देरावर आदि स्थानों पर अपने मुकाम करते हुए थार के रेगिस्तान स्थित परमारों के क्षेत्र में लोद्रवा नामक शहर के शासक को पराजित यहाँ अपनी राजधानी स्थापित की थी। इस भू-भाग में स्थित स्थानीय जातियों जिनमें परमार, बराह, लंगा, भूटा, तथा सोलंकी आदि प्रमुख थे। इनसे सतत संघर्ष के उपरांत भाटी लोग इस भू-भाग को अपने आधीन कर सके थे। वस्तुत: भाटियों के इतिहास का यह संपूर्ण काल सत्ता के लिए संघर्ष का काल नहीं था वरन अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष था, जिसमें ये लोग सफल हो गए।

जैसलमेर की स्थापत्यकला :-
जैसलमेर के सांस्कृतिक इतिहास में यहाँ के स्थापत्य कला का अलग ही महत्व है। किसी भी स्थान विशेष पर पाए जाने वाले स्थापत्य से वहां रहने वालों के चिंतन, विचार, विश्वास एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता का आभास होता है। जैसलमेर में स्थापत्य कला का क्रम राज्य की स्थापना के साथ दुर्ग निर्माण से आरंभ हुआ, जो निरंतर चलता रहा। यहां के स्थापत्य को राजकीय तथा व्यक्तिगत दोनो का सतत् प्रश्रय मिलता रहा। इस क्षेत्र के स्थापत्य की अभिव्यक्ति यहां के किलों, गढियों, राजभवनों, मंदिरों, हवेलियों, जलाशयों, छतरियों व जन-साधारण के प्रयोग में लाये जाने वाले मकानों आदि से होती है।
जैसलमेर राज्य में हर 2030 किलोमीटर के फासले पर छोटे-छोटे दुर्ग दृष्टिगोचर होते हैं, ये दुर्ग विगत 1000 वर्षो के इतिहास के मूक गवाह हैं। मध्ययुगीन इतिहास में इनका परम महत्व था। ये राजनैतिक आवश्यकतानुसार निर्मित कराए जाते थे। दुर्ग निर्माण में सुंदरता के स्थान पर मजबूती तथा सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता था। परंतु यहां के दुर्ग मजबूती के साथ-साथ सुंदरता को भी ध्यान मं रखकर बनाया गया था। दुर्गो में एक ही मुख्य द्वारा रखने के परंपरा रही है। दुर्ग मुख्यतः पत्थरों द्वारा निर्मित हैं, परंतु किशनगढ़, शाहगढ़ आदि दुर्ग इसके अपवाद हैं। ये दुर्ग पक्की ईंटों के बने हैं। प्रत्येक दुर्ग में चार या इससे अधिक बुर्ज बनाए जाते थे। ये दुर्ग को मजबूती, सुंदरता व सामरिक महत्व प्रदान करते थे।

जैसलमेर की चित्रकला :-
चित्रकला की दृष्टि से जैसलमेर का विशिष्ट स्थान रहा है। भारत के पश्चिम थार मरुस्थल क्षेत्र में विस्तृत यह राज्य यहाँ दूर तक मरु के टीलों का विस्तार है, वहीं कला संसार का खजाना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्राचीन काल से ही व्यापारिक स्वर्णिम मार्ग के केन्द्र में होने के कारण जैसलमेर ऐश्वर्य, धर्म एवं सांस्कृतिक अवदान के लिए प्रसिद्ध रहा है। जैसलमेर में स्थित सोनार किला, चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर (1402-1416 ई.), सम्भवनाथ जैन मंदिर (1436-1440 ई.), शांतिनाथ कुन्थनाथ जैन मंदिर (1480 ई.), चन्द्रप्रभु जैन मंदिर तथा अनेक वैषण्व मंदिर धर्म के साथ-साथ कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 18 वीं 19 वीं शताब्दी में बनी जैसलमेर की प्रसिद्ध हवेलियाँ तो स्थापत्य कला की बेजोड़ मिसाल है। इन हवेलियों में बने भित्ति चित्र काफी सुंदर हैं। सालिम सिंह मेहता की हवेली, पटवों की हवेली, नथमल की हवेली तथा किले के प्रासाद और बादल महल आदि ने जैसलमेर की कलात्मदाय को आज संसार भर में प्रसिद्ध कर दिया है।

जैसलमेर की भाषा :-
जैसलमेर में बोली मुख्यतः राजस्थान के मारवा क्षेत्र में बोली जाने वाली मारवाड़ी का एक भाग ही है। परन्तु जैसलमेर क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा थली या थार के रेगिस्तान की भाषा है। इसका स्वरुप राज्य के विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न है। उदाहरण स्वरुप लखा,म्याजलार के इलाके में मा लानी घाट व भाषाओं का मिश्रण बोला जाता है। परगना सम, सहागढ़ व घोटाडू की भाषा में थाट, व सिंधी भाषा का मिश्रण बोल-चाल की भाषा है। विसनगढ़,खुहड़ी, नाचणा आदि परगनों में जो बहावलपुर, सिंध से संलग्न है, माङ, बीकानेरी व सिंधी भाषा का मिश्रण है। इसी प्रकार लाठी, पोकरण, फलौदी के क्षेत्र में घाट व मा भाषा का मिश्रण है। राजस्थान राजधानी में बोली जाने वाली इन सभी बोलियों का मिश्रण है, जो घाट, माङ, सिंधी, मालाणी, पंजाबी, गुजराती भाषा का सुंदर मिश्रण है।

जैसलमेर का साहित्य :-
मरु संस्कृति का प्रतीक जैसलमेर कला व साहित्य का केन्द्र रहा है। उसने हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने में एक प्रहरी का कार्य किया है। जैन श्र१ति की विक्रम संवत् १५०० खतर गच्छाचार्य जिन भद्रसूरि का निर्देशानुसार व जैसलमेर के महारावल चाचगदेव के समय गुजरात स्थल पारण से जैन ग्रंथों का बहुत बङा भण्डारा जैसलमेर दुर्ग में स्थानान्तरित किया गया था। अन्य जन श्रुति के अनुसार यह संग्रह चंद्रावलि नामक नगर का मुस्लिम आक्रमण में पूर्णत- ध्वस्त होने पर सुरक्षित स्थान की तलाश में यहाँ लाया गया था। इस विशाल संग्रह को अनेक जैन मुनि, धर्माचार्यों, श्रावकों एवं विदुषी साध्वियों द्वारा समय-समय पर अपनी उत्कृष्ट रचनाओं द्वारा बढ़ाया गया। यहाँ रचे गए अधिकांश ग्रंथों पर तत्कालीन शासकों के नाम, वंश, समय आदि का वर्णन किया गया है। यहां रखे हुए ग्रंथों की कुल संख्या २६८३ है, जिसमें ४२६ ता पत्र लिखें हैं। यहां तांपत्र पर उपलब्ध प्राचीनतम ग्रंथ विक्रम संवत् १११७ का है। तथा हाथ से बने कागज पर हस्तलिखित ग्रंथ विक्रम संवत् १२७० का है। इन ग्रंथों की भाषा प्राकृत, मागधी, संस्कृत, अपभ्रंश तथा ब्रज है। यहाँ पर जैन ग्रंथों के अलावा कुछ जैनत्तर साहित्य की भी रचना हुई, जिनमें काव्य, व्याकरण, नाटक, श्रृंगार, सांख्य, मीमांशा, न्याय, विषशास्र, आर्युवेद, योग इत्यादि कई विषयों पर उत्कृष्ट रचनाओं का प्रमुख स्थान है।

जैसलमेर का संगीत :-
लोक संगीत की दृष्टि से जैसलमेर क्षेत्र का एक विशिष्ट स्थान रहा है। यहाँ पर प्राचीन समय से मा राग गाया जाता रहा है, जो इस क्षेत्र का पर्यायवाची भी कहा जा सकता है। यहाँ के जनमानस ने इस शुष्क भू-ध्रा पर मन को बहलाने हेतु अत्यंत ही सरस व भावप्रद गीतों की रचना की। इन गीतों में लोक गाथाओं, कथाओं, पहेली, सुभाषित काव्य के साथ-साथ वर्षा, सावन तथा अन्य मौसम, पशु-पक्षी व सामाजिक संबंधों की भावनाओं से ओतप्रोत हैं। लोकगीत के जानकारों व विशेषज्ञों के मतों के अनुसार जैसलमेर के लोकगीत बहुत प्राचीन, परंपरागत और विशुद्ध है, जो बंधे-बंधाये रूप में अद्यपर्यन्त गाए जाते हैं।

जैसलमेर का धर्म :-
भारतवर्ष की भूमि सदैव से धर्म प्रधान रही है, यहाँ पर धर्म के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जैसलमेर राज्य का विस्तार भू-भाग भी इस भावना से मुक्त नहीं रहा। इस क्षेत्र के सर्वप्रथम राव तणू द्वारा तणोट नामक स्थान बसाने तथा वहाँ देवी का मंदिर का मंदिर बनाने का उल्लेख प्राप्त होता है। यह देवी का मंदिर आज भी विद्यमान है, जैसलमेर में विभिन्न संप्रदायों के प्रति बहुत आस्था रही है, इनमें राम स्नेही, नाथपंथ तथा वल्लभ संप्रदाय प्रमुख हैं। महारावल अमरसिंह के समय रामानंदी पंथ के महंत हरिवंशगिरि ने अमरसिंह को अपने चमत्कारों प्रसन्न किया व रावल देवराज के समय से राज्स में किसी अन्य पंथ के प्रवेश पर लगी रोक को हटवाया तथा स्थान-स्थान पर रामद्वारों की स्थापना कराई। यहाँ जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा ने इतनी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की थी कि कालांतर में श्वेताम्बर पंथी जैन समाज के लिये जैसलंमेर एक तीर्थ स्थल बन गया। जैसलमेर राज्य में प्रारंभ से ही इस्लाम धर्म मानने वाले लोगों का अस्तित्व रहा है, इस क्षेत्र में पाये जाने वाले इस्लाम धर्म के अनुयायी अधिकांशतः स्थानीय जातियों द्वारा बलात् इस्लाम धर्म स्वीकृत करने वालों में से है।

जैसलमेर की पूरी जानकारी

Leave a Comment