महंगे चढ़ावों से नहीं, भगवान तो भाव से प्रसन्न होते हैं – धर्म हमेशा दान और दया की सीख देता है। दान का अर्थ केवल धन के दान से नहीं है। शिक्षा, अन्न, क्षमा, श्रम आदि कई तरह के दान का उल्लेख ग्रंथों में किया गया है। जो धर्म के अनुसार दान करता है वह देवता के समान होता है और जो अपने सुख के लिए दूसरों से छीनने, या लेने का विचार अपने मन में रखता है वह दानव के समान होता है। यह बात कथावाचक पंडित मनमोहन भार्गव ने श्री द्वारिकाधीश मंदिर में चौथे दिन कथा काे विस्तार देते हुए कही। महंगे चढ़ावों से नहीं, भगवान तो भाव से प्रसन्न होते हैं
जीवन में हमें जो कुछ मिला है, वस्तुत: वह हमारे कर्मो का फल होता है, परंतु जब हम उसे प्रभु का दिया हुआ प्रसाद मानकर ग्रहण करते हैं तो बात कुछ और होती है। हमारा हर कर्म पूजा बन जाता है। यही बात भोजन के संदर्भ में भी लागू हो सकती है। कोई चीज जब हम खाने से पहले भगवान को चढ़ाकर यानी अर्पित करके खाते हैं तो वह भोजन भी प्रसाद बन जाता है।
इसलिए जो भगवान के भक्त होते हैं वे भोजन से पहले कहते हैं-हे प्रभु, तुम्हारी दी हुई वस्तु पहले मैं तुम्हें समर्पित करता हूं। और भला वे ऐसा क्यों न करें, क्योंकि हमें यह जो मानव शरीर मिला है वह उसका दिया हुआ ही तो है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि कोई भक्त यदि प्रेमपूर्वक मुझे फल-फूल, अन्न, जल आदि अर्पित करता है तो उसे मैं प्रेमपूर्वक सगुण रूप में प्रकट होकर ग्रहण करता हूं। भक्त की यदि भावना सच्ची हो, श्रद्धा और आस्था प्रबल हो तो भगवान उसके भोजन को अवश्य ग्रहण करते हैं। जैसे उन्होंने शबरी के बेर खाए, सुदामा के तंदुल (चावल) खाए, विदुरानी का साग खाया। प्रभु की कृपा महान है। उसकी कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है, उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना, कृतज्ञता प्रकट करने के साथ एक मानवीय गुण भी है।
कुछ लोग यह प्रश्न भी करते हैं कि जब भगवान चढ़ाया हुआ प्रसाद खाते हैं तो घटता क्यों नहीं? उनका कथन भी सत्य है। जिस प्रकार फूलों पर भौंरा बैठता है और फूल की सुगंध से तृप्त हो जाता है, किंतु फूल का वजन नहीं घटता उसी प्रकार प्रभु को चढ़ाया प्रसाद अमृत होता है। प्रभु व्यंजन की सुगंध और भक्त के प्रेम से तृप्त हो जाते हैं। वे भाव के भूखे हैं, भोजन के नहीं। जैसे एक मां बच्चे को कुछ खाने को दे और बच्चा उसे तोतली भाषा में सिर्फ पूछ भर दे तो मां उसे सीने से लगा लेती है। इसी प्रकार भगवान भी तृप्त होते हैं, प्रसन्न होते हैं और अपनी कृपा बरसाते हैं। यह मानव शरीर भी उसकी अनंत कृपा से प्रसाद स्वरूप मिला है। हमें ईश्वर की इस कृपा को कभी नहीं भूलना चाहिए। जब हम इसकी सार्थकता को समझेंगें, तभी जीवन धन्य होगा।
यदि आप कभी किसी पवित्र मंदिर में गए हैं, तो आपने देखा होगा कि लोग अपने दान और प्रसाद को बहुत गर्व के साथ बताते हैं। ऐसा लगता है जैसे कि उनकी भेंट कोई रिश्वत है जो उन्हें भगवान के साथ मिलाने का वादा करती है। जैसे कि प्रसाद जितना मोटा होगा, उनकी भक्ति उतनी ही बेहतर होगी। तो सवाल है कि कितना और क्या बेहतर है और क्या यह उस तक पहुंचता है
भगवद्गीता के अध्याय 16, श्लोक 21 में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।’ यानी यदि कोई भक्तिपूर्वक मुझे एक पत्ता, एक फूल, एक फल या यहां तक कि जल भी अर्पित करता है, तो मैं शुद्ध चेतना में अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पित किए गए उस उपहार को आनंदपूर्वक स्वीकार करता हूं। भगवान कृष्ण कहते हैं कि प्रेम से दिया गया कोई भी दान भगवान खुशी-खुशी स्वीकार करते हैं। सुदामा की दूसरी बार भेंट कृष्ण के प्रति प्रेम से भरी हुई थी। भगवान कृष्ण ने कोई हैसियत या गरीबी नहीं देखी। उन्होंने जो देखा, वह सुदामा का हृदय था।
भगवान कृष्ण और ब्रजवासियों की और भी दिलचस्प कहानी है। ब्रजवासी अपने गोविंदा को प्यार से तैयार की गई मिठाइयां खिलाना चाहते थे, लेकिन उनके और कृष्ण के बीच एक नदी बाधा थी। यहां एक व्यास उनकी मिठाई खा जाते हैं। जैसे ही वह मिठाई खाते हैं, ब्रजवासी चिंता और क्रोध में पड़ जाते हैं कि अब उनका चढ़ावा उनके आराध्य को कैसे चढ़ाया जाएगा। तब व्यास कहते हैं, ‘अगर मैंने मिठाई का एक टुकड़ा भी खाया है, तो नदी इन्हें रास्ता न दे।’ पर नदी दो भागों में बंट कर ब्रजवासियों को उस पार जाने का रास्ता दे देती है। जिस क्षण वह अपने भगवान के पास पहुंचते हैं, कृष्ण कहते हैं, मेरा पेट भरा हुआ है, कुछ क्षण पहले ही मैंने मिठाइयां खाई थीं। यह सुनकर ब्रजवासियों को एहसास होता है कि किसी भूखे को दिया गया भोजन कृष्ण को खिलाने के बराबर है।
हम सब परमात्मा को अपना प्रसाद चढ़ाते हैं। कोई कुछ बड़ा चढ़ा देता है, तो उसके बारे में गाता फिरता है। वहीं, हममें से कुछ भगवान को इसलिए कुछ चढ़ाते हैं, ताकि हमें बदले में फायदा हो। हम, हमारी भेंट के इस भाव में अपने अहं को भी शामिल कर लेते हैं, लेकिन भगवान को हमारी भेंट के भौतिक मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं है। वह हमेशा प्यार और भक्ति की तलाश में रहते हैं। भेंट के बहाने वह हमें धर्म के साथ जोड़े रखने में मदद करते हैं। यह मायने नहीं रखता कि हम क्या चढ़ाते हैं। हममें से प्रत्येक अपने स्वभाव, अपनी क्षमता और अपनी शर्तों के आधार पर भेंट चढ़ाता है। अगर हम अपने सभी विचारों और कर्मों के साथ खुद को उनके प्रति कृतज्ञता से अर्पित करते हैं, तो भगवान यह देखकर बहुत खुश होते हैं।
अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए भेंट चढ़ाने वालों पर ध्यान मत दीजिए। वे जो करते हैं, वह उनके और उनके भगवान के बीच होता है। और हम जो करते हैं वह हमारे और हमारे भगवान के बीच होता है। परमात्मा के साथ अपने संबंध को एक व्यक्तिगत मिलन बनने दें। तो अगली बार जब आप परमात्मा को भेंट चढ़ाएं, तब यह न सोचें कि आपके बटुए में क्या है, बल्कि यह सोचें कि आपके दिल में क्या है
Conclusion:- दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हमने महंगे चढ़ावों से नहीं, भगवान तो भाव से प्रसन्न होते हैं के बारे में विस्तार से जानकारी दी है। इसलिए हम उम्मीद करते हैं, कि आपको आज का यह आर्टिकल आवश्यक पसंद आया होगा, और आज के इस आर्टिकल से आपको अवश्य कुछ मदद मिली होगी। इस आर्टिकल के बारे में आपकी कोई भी राय है, तो आप हमें नीचे कमेंट करके जरूर बताएं।
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