राजपूतों की कुलदेवी कौन सी है

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राजपूतों की कुलदेवी कौन सी है

गौड़ वंश की कुलदेवी –
हमारे हिन्दू धर्म में कुलदेवी मा का विशिष्ट स्थान होता है ओर यह हमारे समाज की पहचान होती है ओर हमें जोड़ कर रखती है। कोई भी धार्मिक कार्य ओर यज्ञ कुलदेवी मा की आराधना ओर आशीर्वाद के बिना आरंभ या संपन्न नहीं होता है।

गौड़ वंश की कुलदेवी –
सर्वप्रथम हम इस कुल के गौरवमय इतिहास के बारे में जानते हैं।

गौड़ वंश का इतिहास –
गौड़ क्षत्रिय भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत के वंशज हैं। ये विशुद्ध सूर्यवंशी कुल के हैं। जब श्रीराम अयोध्या के सम्राट बने तब महाराज भरत को गंधार प्रदेश का स्वामी बनाया गया। महाराज भरत के दो बेटे हुये तक्ष एवं पुष्कल जिन्होंने क्रमशः प्रसिद्द नगरी तक्षशिला (सुप्रसिद्ध विश्वविधालय) एवं पुष्कलावती बसाई (जो अब पेशावर है)। एक किंवदंती के अनुसार गंधार का अपभ्रंश गौर हो गया जो आगे चलकर राजस्थान में स्थानीय भाषा के प्रभाव में आकर गौड़ हो गया। महाभारत काल में इस वंश का राजा जयद्रथ था।

कालांतर में सिंहद्वित्य तथा लक्ष्मनाद्वित्य दो प्रतापी राजा हुये जिन्होंने अपना राज्य गंधार से राजस्थान तथा कुरुक्षेत्र तक विस्तृत कर लिया था। पूज्य गोपीचंद जो सम्राट विक्रमादित्य तथा भृतहरि के भांजे थे इसी वंश के थे। बाद में इस वंश के क्षत्रिय बंगाल चले गए जिसे गौड़ बंगाल कहा जाने लगा। आज भी गौड़ राजपूतों की कुल देवी महाकाली का प्राचीनतम मंदिर बंगाल में है जो अब बंगलादेश में चला गया है।

सम्पूर्ण भारतवर्ष में स्थापित गौड़ ओर गौड़ शाखाएं निम्न प्रकार है –
बंगाल के गौड़
राजसथान के गौड़
अजमेर के गौड़
मारोठ के गौड़
उत्तरपरदेश के गौड़
मध्य्रदेश के गौड़
खांडवा के गौड़

गौड़ राजपूत वंश की कई उपशाखाएँ (खापें) है जैसे- अजमेरा गौड़, मारोठिया गौड़, बलभद्रोत गौड़, ब्रह्म गौड़, चमर गौड़, भट्ट गौड़, गौड़हर, वैद्य गौड़, सुकेत गौड़, पिपारिया गौड़, अभेराजोत, किशनावत, चतुर्भुजोत, पथुमनोत, विबलोत, भाकरसिंहोत, भातसिंहोत, मनहरद सोत, मुरारीदासोत, लवणावत, विनयरावोत, उटाहिर, उनाय, कथेरिया, केलवाणा, खगसेनी, जरैया, तूर, दूसेना, घोराणा, उदयदासोत, नागमली, अजीतमली, बोदाना, सिलहाला आदि खापें है जो उनके निकास स्थल व पूर्वजों के नाम से प्रचलित है।

गौड़ वंश की कुलदेवी गौङ वंश की सामान्य जानकारी –
गौड़ वंश
वंश- सूर्यवंश
गौत्र- भारद्वाज
प्रवर तीन- भारद्वाज, बाईस्पत्य, अंगिरस
वेद- यजुर्वेद
शाखा- वाजसनेयी
सूत्र- पारस्कर
कुलदेवी- महाकाली
इष्ट देव- रूद्रदेव
वृक्ष- केला
गृहदेवी- नारायणी माता
भैरव- गया-सुर
नदी- गिलखा
तालाब- गया-सागर
गढ़- पहला बंगाल, दुसरा गढ़ अजमेर
गुरू- वशिष्ठ
किले की देवी- महादुर्गा
ढाल- आशावरी
तलवार- रंगरूप
बन्दुक- संदाण
तोप- कट्कबिजली
कटार- रणवीर
छुरी- अस्पात
ढोल- जीतपाल
नंगारा- रणजीत
घाट- हरीद्वार
तीर्थ- द्वारिका
भाट- करणोत
चारण- मेहसन
ढोली- डोगव

महाकाल की प्रियतम महाकाली ही मुख्य शक्ति है दार्शनिक दृष्टि से काल तत्व की प्रधानता सर्वोपरि मानी जाती है , इसलिये महाकाली की महत्ता स्पष्ट है , महाकाली के दो रूप है एक उग्र और दूसरा सौम्य यही महाकाली दस महाविधाएं का रूप धारण करती है , विधापति शिव की शक्तियों के रूप में महाविधाएं साधक को अनंत सिद्दियां प्रदान करने में समर्थ है । काली या महाकाली ही समस्त विधाओ कि आदि है ,काली रक्त और कृष्ण भेद से दो रूपो में अधिष्ठित है रक्तवर्णा का नाम सुंदरी और कृष्ण वर्णा का नाम दक्षिणा है , काली का नाम काली क्यो पडा इसका विवरण कालिका पुराण से मिलता है ।

उक्त पुराण में कथा आती है कि एक बार हिमालय पर अवस्थित मतंग मुनि के आश्रम में जाकर देवताओ ने महामाया की स्तुती की , स्तुती से प्रसन्न होकर मतंग वनिता के रूप में भगवती ने देवताओ को दर्शन दिये , और पूछा कि तुम लोग किसकी स्तुती कर रहे हो , उसी समय देवी जी के शरीर से काले पहाड के समान वर्ण वाली एक और दिव्य शक्ति नारी प्रगट हुई , उस महान तेजस्वनी ने स्वयं ही देवताओ की तरफ से उत्तर दिया , कि ये लोग मेरी ही स्तुती कर रहे है , वे काजल के समान कृष्णा थी इस लिये उनका नाम काली पडा ।

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