आदिवासी गोत्र कितने हैं

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गोत्र –
बाहर विवाह के निमित्त, मुंडा जाती कई छोटे वर्गों में विभक्त हैं जिन्हें किली कहते हैं| मुंडा किली बाहर शादी करते हैं पर असली मुंडा ही जाति के अंतर्गत| ‘यों संताल, खड़िया, असुर आदि में वे विवाह- गांठ नहीं जोड़ते| इस नियम का केवल एक अपवाद है : तमाड़ के मुंडा लोग मानभूम के भूमिजों से शादी करते हैं जो शायद सजातीय हैं| किली की उत्पति किसी प्राकृतिक पदार्थ से है, जैसे कोई जानवर, पक्षी, जलचर (जैसे मछली), थलचर (जैसे मूसा) और पौधे से| लोग कहते हैं कि भूतकाल में किसी पूर्वज या पूर्वजों का इन पदार्थों से काम पड़ा था, तो इस घटना के बाद उस पूर्वज ने उनका नागा अपने घराने से जोड़ लिया और यों किली का आरम्भ हुआ| उस वंश के जन भी गोत्रीय पदार्थ को आदर की दृष्टि से देखने लगी| (अब हम ज्ञानियों के बखेड़े में अनायास आ ही गए) – श्रद्धेय और सोविद्वान फादर होफमन ये.स. और राय बहादूर शरतचंद्र राय का बखेड़ा| राय बहादूर कहते हैं कि झारखण्ड में टोटेमिज्म जारी है, याने टोटेम का रथ घराने का प्राकृतिक निशान, जिसको अपने किली- लोग पूजनीय या ईष्ट देव समझकर उसको पवित्र और वर्जित मानते; उसको अपना जीवनदाता समझकर आत्मीय से समझते हैं, उसकी पूजा करते और स्वप्न में भी उसकी हानि नहीं करते हैं| फादर जी फर्माते है कि छोटानागपुर निवासी अपने किली-निशान की न पूजा करतें न जीवनदाता ही समझते हैं, और आदर देना तो दूर रहा, कोई-कोई किलियों की परवाह न कर उसको खाते भी हैं| वर्तमान लेखक फादर का पक्ष इसलिए लेते हैं कि इन्होंनें कई प्रमाण दिए हैं जिनके लिए यहाँ स्थान नहीं|

मुंडाओं के झारखंड आने के ज़माने, थोड़े ही गोत्र थे, पर उनकी बढ़ती संख्या ने और नयी किलियाँ चुनी और गोत्र विहीनों को किलियाँ दीं| कोई-कोई किलियाँ तो संतालों की सी हैं; ये उसी कल की हैं| ग्रहण करने की भी कई किस्सायें हैं| उदाहरणार्थ: एक समय, एक विशाल कछूए ने अपने मुंडा शरणागातों को एक उमड़ती नदी के पार लगा दिया; अब आया “होरो” अथवा “कछूवा” गोत्र| नाग – किलीवाले कहते हैं : एक मुंडा संपेरा, दूर अपना गाँव वापस आ रहा था| अभाग्यवश, राह में उसकी मृत्यु हो जाने पर सांपराम अपनी काया शव पर लपेटकर उसे घर लाया; बस चली घराने में “नाग किली”| ऐसी ही कई कहानियां हैं|

मुंडा लोग किसी वंश –
विशेष में रहने का खास प्रमाण देते है| अपनी पितृ- कूल किली| घराने के पूजा पाठ में भी सब किली- मेम्बरों को भी हाजिर होने का दावा है| दुसरे- दुसरे किली मेम्बरों की प्रसादी भोजन (पूजा- भोजन)खाने का कोई हक़ नहीं | मरने पर गोत्रज ही एक कब्रस्थान में गाड़े जा सकते हैं| उनका अपना “ससन” और “ससन दिरी” (कब्र पत्थर) है यदि कोई किलिजन गाँव से दूर मर जाए तो वार्षिक त्योहार के समय “जंगतोपा” (हड्डियों को दफन) के अवसर पर उसकी हड्डियों लाकर ससन के नीचे रखी जाती हैं| मुंडा लोगों की एक कहावत है : “ससनदीरीको, होड़ो होन कोआ: पटा” (कब्र – शिला ही मुंडाओं का पट्टा है)|

मुंडारी किलियों का अर्थ बताना कठिन काम है, इसलिए की इसमें एकमत नहीं हैं| यहाँ माननीय फा. होफमन की सूची दी जाती है, जिन्होंने 30 वर्षों से अधिक मुंडा लोगों के संग रहकर उनका अध्ययन किया है|

(क) ये किलियाँ सिलसिलेवार मालूम पड़ती हैं पर किसी- किसी का अर्थ अज्ञात है :बरजो (बरूजो) – एक फल विशेष; बोदरा- चम्पिया गुडिया- गाछ- मूंडू – लम्बी लाठी घुसेड़ना; मुरूम-नील- बैल; ओड़ेया – एक पक्षी; पूर्ती – संगा – शक्करकंद; टीड़- एक जवान भैंस; सोएस – सड़यल मछली; टूटी – एक प्रकार का अन्न|

(ख) भिन्न- भिन्न किलियाँ| इनके अर्थ होते हैं :बाबा- धान; बाअ – एक मछली; बाल मूचू- मछली जाल बरू- एक गाछ; मूस= मूसा; बूलूंग – निमक; चोरिया – एक प्रकार का चूहा; डांग (डहँगा)- डांग; डूंगडूंग (आईंद) – एक बहूत लंबी मछली; गाड़ी बंदर; हो (तोपनो, देम्ता) – गाछ की लाल चींटी; हँस –हँस हेमरोम – एक पेड़; होरो (कछुआ) – कछुआ; जोजो – इमली; कोवा – कौआ; केरकेट्टा- एक चिड़िया; कूदा – एक पेड़; कूजूरी – एक लता; कूला (बाघ)- बाघ; कूंकल – बर्रा; लंग- एक पक्षी; मौंकल – एक पक्षी; पांडु (नाग)- नाग सांप; पूतम – पंडकी; रूंडा (बंडो) – जंगली बिल्ली; सलू मैना – जंगली मैना; सींघ – सींग. तनी (बरवा) – जंगली कुत्ता; ताडैबा – एक फूल; तिलमिंग – तिल; टेड़ो : (लकड़ा) – हूँडार, लक्कड़बग्घा; टिडू- एक पक्षी|

(ग) इनका अर्थ निश्चित नहीं है – बरला- बरगद भेंगरा- घोडा खाने वाला, घोडा; डोडराय- खो?; कांडीर -कंडूला – पेट दर्द?; कोंगाड़ी – सफेद कौवा ?; सूरिन (सोरेन – संताली)- एक लाल पक्षी

(घ) इनका मने ही नहीं मिलता – बदिंग; बागे (बाघ?) दंगवार –(कुमारी?); लूगून; मुंदरी; समाद; तिरकी . इत्यादि|

फादर होफमन ने 106 किलियाँ खोजी हैं| पर यहाँ 59 ही नामों का उल्लेख हूआ| कई किलियाँ कई वर्गों में विभक्त है, अर्थ भी कुछ – कुछ भिन्न हैं –

पहले लेख में “टोटेम” और “टबू” मानव- शास्त्र या जाति- विद्या के दो शब्दों को जरा खोलकर व्यवहार किया गया है| कहा जाता है कि मुंडा लोग टोटेम की पूजा नहीं करते, न टबू को निहायत वर्जित मानते, फिर भी प्राय: सब के सब उसका आदर करते हैं| पाठक इसको याद करें|

गोत्रों के संबंध में, जैसे मुंडाओं का जातीय- विकास और ख्याल है, वैसे ही उराँव और खड़िया लोगों की भी धारणाएँ चलती हैं| तिस पर भी ज्ञानियों का मत है कि इन आदिवासियों में गोत्र- प्रथा की धारा स्वतंत्र रूप से बहती आई है| पर इसका प्रमाण हमें नहीं मिलता| सैकड़ों वर्षो से सहवास से इन जातियों का कुछ गोत्रों की उत्पति अपनी जाति के अंतर हुई है| जब शब्द कोश आदि मिलते- जुलते हैं, तो गोत्रों का परस्पर आधार या लेन-देन क्यों न हो: कई गोत्र तो एक ही के रूपान्तर हैं|

आलीराजपुर ग्राम रामसिंह की चौकी में उंडवा फाटे के समीप आदिवासी रावत जनसमुदाय की कुलदेवी चंडी मां की मूर्ति स्थापना धूमधाम से की गई। सुबह माताजी का महास्नान कार्यक्रम हुआ। इसके पश्चात दोपहर को स्थापना विधि और प्राण प्रतिष्ठा की गई। दोपहर में विशाल भंडारा आयोजित किया गया, जिसमें 5 हजार से अधिक श्रद्धालुओं ने प्रसादी ग्रहण की। इस संबंध में रावत जनसमुदाय के पदाधिकारियों ने बताया, गुरुवार को माताजी का महास्नान, स्थापना विधि और प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम सुबह 7.00 बजे से शुरू हुआ। इसके बाद दोपहर में यज्ञ की पूर्णाहुति पर माताजी की महाआरती और महाप्रसादी हुई, जिसमें झाबुआ, धार, बड़वानी, खरगोन सहित राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र से भी समुदाय के लोग शामिल हुए। इससे पहले बुधवार सुबह यज्ञ और शाम को महाआरती हुई और मंगलवार को ग्राम रामसिंह की चौकी में कलेक्टर कार्यालय के पीछे स्थित पुराने मंदिर से कलश यात्रा निकालकर नए मंदिर पर मंडप पूजन एवं माताजी का जलाधिवास और आरती उतारी गई थी। मूर्ति स्थापना कार्यक्रम के दौरान जिला कांग्रेस अध्यक्ष महेश पटेल, विधायक मुकेश पटेल परिवार ने समाज के सभी पुरुषों का साफा बांधकर विशेष सम्मान किया। इसके बाद यज्ञ की पूर्णाहुति कर महाआरती उतारी गई और समाजजन ने ढोल-मांदल की थाप पर जमकर नृत्य किया।
रामसिंह की चौकी में हुई थी कुल की स्थापना: पदाधिकारियों ने बताया, आदिवासी समाज में रावत जनसमुदाय की मां कुलदेवी माताजी को उनके पूर्वज राजस्थान से लाकर मप्र के आलीराजपुर जिले के ग्राम रामसिंह की चौकी में आकर बस गए। यहीं पर रावत समुदाय के लोगों ने अपनी कुलदेवी मां चंडीदेवी की स्थापना की थी, जिसके बाद से समुदाय के लोग अखाती का त्योहार मेले के रूप में मनाते आए हैं। उन्होंने बताया, आलीराजपुर, झाबुआ, धार, बड़वानी, खरगोन सहित राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र से समुदाय के लोग प्रतिवर्ष ग्राम रामसिंह की चौकी में एकत्रित होकर अपनी परिवार की सुख-शांति और समृद्धि के लिए पूजा-अर्चना कर समाज के उत्थान के लिए कार्ययोजना तैयार करते थे। माताजी की मूर्ति स्थापना कार्यक्रम में रतनसिंह रावत, डुंगरसिंह रावत, अजमेर रावत, लोंगसिंह रावत, विरेंद्र रावत,शरबत रावत, मुकेश रावत, नगर पालिका अध्यक्ष सेना पटेल सहित बड़ी संख्या में आदिवासी समाजजन शामिल थे।

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