आल्हा ऊदल का गोत्र क्या था

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नाम – आल्हा
पिता का नाम – दसराज / दक्षराज
माता का नाम – देवला
पत्नी का नाम – सोना
जाति – अहीर
जन्म स्थान – महोबा , उत्तर प्रदेश
पिता का जन्म स्थान – वराप्ता गांव, बक्सर, बिहार
भाई – ऊदल
ग्रन्थ – अल्हाखण्ड
जन्मतिथि – 25 मई 1140 ई.
मुख्य प्रतिद्वंदी -पृथ्वीराज चौहान
आल्हा जयंती – 25 मई

आल्हा कौन थे –
आल्हा ( Aalha ) बनाफर कुल के यादव (अहीर) थे आल्हा ( Aalha) के पिता का नाम दसराज ( Dasraj) और माता का नाम देवला ( Dewal) था। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल ( udal) था और वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था आल्हा (alha) मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुंदेलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। दसराज और वसराज का जन्म बिहार (bihar) राज्य के बक्सर (baxar) जिले के बराप्ता (vrapta) नाम गांव में अहीर (ग्वाल ) [ahir or Gwal / cowherd ] परिवार में हुआ था ।

जगनिक की रचना अल्ह खण्ड –
जगनेर के राजा जगनिक ने आल्ह-खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है।
ऊदल ने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए ऊदल वीरगति प्राप्त हुए आल्हा को अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो आया मारा गया 1 घंटे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया और बुंदेलखंड के महा योद्धा आल्हा ने नाथ पंथ स्वीकार कर लिया ।

आल्हा चंदेल राजा परमर्दिदेव (परमल के रूप में भी जाना जाता है) के एक महान सेनापति थे, जिन्होंने 1182 ई० में पृथ्वीराज चौहान से लड़ाई लड़ी, जो आल्हा-खांडबॉल में अमर हो गए।

आल्हा के आंगन में वीर गाथाओं की गमक –
इधर चौमासे ने दस्तक दी तो याद आई, चौपाल पर आसन जमाये गायकों की मंडली. कंठ से उठती वो हुंकार भी- “जो नर जैहो रण खेतन में, जुगों-जुगों तक चल है नाम”. आल्हा के छंद वीरता और पराक्रम की ऐसी ही अग्निशिखा हैं. यानी शब्द, विचार और ध्वनि की तरंगों को थामती वो गायन शैली, जिसने बुंदेलखंड की धरती पर गरजते कलह के इतिहास को कंठ और स्मृति में बसाकर लोक आख्यान का नया फलसफा रच दिया |

सहज ही जेहन में कौंधती है मरहूम लोकमान्य आल्हा गायक लल्लूलाल वाजपेयी की शौर्य छवि. सिर पर लाल कलंगी-पगड़ी, माथे पर विजय तिलक, हाथ में चमकती तलवार, फड़कती भुजाएं और लरजती आवाज़ों से फूटते रणबांकुरों की जांबाजी के कि़स्से. इधर रात-रात भर आसमान से मेह बरसता, उधर आल्हा की महफिल में ओज भरे बादल गरजते.

बुंदेली कवि जगनिक को जाता है अमर गाथा रचने का श्रेय –
गाथाओं की गोद में गुजरे जमाने की जाने कितनी स्मृतियां अपना आसरा तलाशती हैं. वक्त गुजर जाता है लेकिन लोक मानस के पटल पर अपने नक्श बनाती पूर्वजों की यह विरासत कहीं ठहर जाती है. आल्हा की इस अमर गाथा को रचने का श्रेय बुंदेली कवि जगनिक को जाता है. चंदेल राजा परमार के राजकवि के रूप में उनका मान था. वह वीरगाथा काल था जगनिक ने आल्हा और ऊदल नाम के दो वीर चरित्रों के पराक्रम को छंद शैली में पिरोया

आल्हा काव्य की कथा को संक्षेप में समझना चाहें तो यह कि एक समय में परमाल महोबा के राजा हुए. उनकी रानी मल्हनादे थीं और राजकाज में कुशल थीं. उनका एक पुत्र ब्रह्मा और दूसरा रनजीत था. परमाल के राज्य में दस्सराज और बच्छराज दो भाई रहते थे. दस्स-राज की पत्नी देवलदें थीं, जिनके दो पुत्र आल्हा और ऊदल हुए. बच्छराज की पत्नी बिरमा थीं, जिनके दो पुत्र मलखान और सुलखान हुए. इनके माहिल नाम के एक मामा थे, जो चुगलखोरी और झगड़े करवाने के लिए मशहूर थे वे राजा परमाल के मंत्री के रूप में भी जाने जाते हैं |

और मांड़ोगढ़ के राजा जंबे के पुत्र करिंगाराय ने महोबा पर कर दी चढ़ाई –
एक समय महोबा को सूना पाकर और माहिल मामा के कहने पर मांड़ोगढ़ के राजा जंबे के पुत्र करिंगाराय ने महोबा पर चढ़ाई कर दी और सोते हुए दस्सराज और उनके भाई बच्छराज को बांध लिया. सारा रनिवास लूट लिया और दोनों भाइयों के सिर कोल्हू में पिरवाकर उनकी खोपडि़यां अपने राज्य में ले जाकर बरगद पर टांग दी. उस समय ऊदल माता देवलदे के गर्भ में थे. देवलदे को चिंता हुई कि पति की मृत्यु के बाद संतान को जन्म दूंगी तो बदनामी होगी |

किसी बांदी की सलाह पर यह पुत्र रानी मल्हनादे को दे दिया गया जिसकी चौड़ी छाती, ऊंचा मस्तक, सुंदर मुख और हिरन जैसे नेत्र देखकर रानी प्रसन्न हुई यही शूरवीर ऊदल के नाम से जाना गया. रानी मल्हनादे एक तरफ अपने पुत्र ब्रह्मा और दूसरे तरफ से ऊदल को दूध पिलाती रहीं. जब ये बड़े हो गये, तो रानी ने इन्हें अच्छी कि़स्म के घोड़े दिये आल्हा को करिलिया, ऊदल को बेंदुला, मलखान को कबूतरी और सुलखान को हिरोजनी घोड़ी दी अपने पुत्र ब्रह्मा को हरनार और रनजीत को हिरोंजनी घोड़े दिये |

आल्हा के लोक आख्यान का गहन शोध करने वाले अग्रणी कथाकार-संस्कृतिकर्मी ध्रुव शुक्ल बताते हैं कि आल्हाखण्ड में एक दिलचस्प कथा प्रसंग है कजरियों की लड़ाई का सावन के महीने में कजरियां खोटते समय यह लड़ाई पृथ्वीराज चौहान से हुई यह लड़ाई कीरतसागर ताल के किनारे हुई थी अतः इसे कीरतसागर की लड़ाई भी कहा जाता है. महोबा में कजरियों का त्यौहार देखने के लिए ही पृथ्वीराज चौहान ने धावा बोला था उन्होंने महोबा के सारे तालों पर कब्जा कर लिया था |

जब युद्ध का सामना कर रहे महोबा को बचाने नहीं आए ऊदल –
कीरत सागर के बारे में कहा जाता है कि उसमें सारे तीर्थों का जल लाकर उसे भरा गया था महोबा को काशी और कीरत सागर को लोग गंगा कहते थे ऊदल को कन्नौज संदेश भेजा गया कि वे रक्षा करने महोबा आ जायें, पर निष्कासन से हुए अपमान का दुख बना रहने के कारण ऊदल नहीं आये और महल में कजलियां सूखती रहीं चन्देल कुंवर रनजीत युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए. मनाने पर ऊदल एक दिन देर से आये और कजरियां सावन की पूर्णिमा की बजाय भादों की प्रतिपदा को खोंटी जा सकीं |

बुंदेली लोक में कजरियों की रक्षा करने की कहानी बहुत पुरानी है कजरियां खोंटने के बाद वे दुश्मन को नहीं दी जातीं घर के जेठे-बड़ों और कुल-कुटुम्बियों से आपस में बदली जाती हैं घर के जेठे सयाने लोग कजलियों को बाल-बच्चों के कानों में खोंसकर उन्हें असीसते हैं |

न पहले जैसे बुंदेली देहात रहे, न पहले जैसी चौमासे की बारिशें –
लोक संस्कृति के अध्येता-निबंधकार श्याम सुन्दर दुबे के अनुसार, एक अंग्रेज चार्ल्स इलियट ने आल्हा की गायिकी से प्रभावित होकर उसके बिखरे कथानक को पुस्तक के रूप में संग्रहित किया था इस किताब को दिलकुशा प्रेस फतेहगढ़ ने छापा था आल्हा की आत्मा से मुसलसल गुजरो तो मालूम होता है कि यह महज कलह की कथा नहीं है इसमें प्रेम और करुणा का मानवीय सन्देश भी है |

दुर्भाग्य से आल्हा के गवैये अब सिमटते जा रहे हैं न पहले जैसे बुंदेली देहात रहे, न पहले जैसी चौमासे की बारिशें, न वो तिश्नगी, न वो कौतुहल, न वो सुकून हां, यादों का एक बहता दरिया जरूर है, जिसके किनारों पर बैठकर तहजीब की बहती लहरों को निहारना भला लगता है डालों पे पड़े झूले, छपरी में जमी आल्हा, ढोलक को कई दिनों में थापों से पड़ा पाला सुर-ताल और लयकारी की इस गमक को जब भवानीप्रसाद मिश्र अपनी कविता में समेटते हैं तो बुंदेली महक में भीगी जाने कितनी बरसातें याद आने लगती हैं |

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