भारद्वाज कुलदेवी कौन है

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भारद्वाज कुलदेवी कौन है

भरद्वाज ऋषि ऋग्वेद के छठे मंडल के दृष्टा जिन्होंने 765 मंत्र लिखे हैं। वैदिक ऋषियों में भरद्वाज ऋषि का अति उच्च स्थान है। ऋषि भरद्वाज के वंशज भारद्वाज कहलाते है

अंगिरा वंशी भरद्वाज के पिता – बृहस्पति और माता ममता थीं। बृहस्पति ऋषि – अंगिरा के पुत्र होने के कारण ये वंश अंगिरा वंश भी कहलाया जा सकता है। ऋषि भरद्वाज ने अनेक ग्रंथों की रचना की उनमें से यंत्र सर्वस्व और विमानशास्त्र की आज भी चर्चा होती है।

चरक ऋषि ने भरद्वाज को ‘अपरिमित’ कहा है। भरद्वाज ऋषि चंद्रवंशी काशी राज दिवोदास के पुरोहित थे। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के भी पुरोहित थे और फिर प्रतर्दन के पुत्र क्षत्र का भी उन्हीं ने यज्ञ संपन्न कराया था। वनवास के समय प्रभु श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का संधिकाल था।

ऋषि भरद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थी रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। सभी के नाम से अलग-अलग वंश चले। भरद्वाज गोत्र की वंशावली में अधिकतर उत्तर भारत के ब्राह्मण पाये जाते है, किन्तु कुछ स्थानों पर क्षत्रिय भी इस गोत्र में सम्मिलित है ।

विन्ध्याचल पर्वत शृंखला के उत्तरीय भूभाग में ऋषि भरद्वाज से जो वंश परंपरा प्रारंभ हुआ वे सभी वंशज भारद्वाज गोत्रीय कहलाए

भारद्वाज गोत्र का वेद – यजुर्वेद है –
अतः इस गोत्र के वंशजों को यजुर्वेद पूजा स्थान में रखना चाहिए और समय आने पर इसे जेष्ठ पुत्र को सौंप दें

भारद्वाज गोत्र का उपवेद – धनुर्वेद है –
गोत्र के वंशज धनुर्वेद को पूजा स्थान में रखें और समय आने पर इसे कनिष्ठ पुत्र को सौंप दें

भारद्वाज गोत्र की शाखा – माध्यन्दिनीय है –
शाखा अर्थात उपवेद से भी छोटी इकाई
वेद और उपवेद के बाद का ग्रंथ है

भारद्वाज गोत्र का सूत्र – कात्यायन है
जब वेद उपवेद शाखा का अध्ययन भारी पड़ने लगा तब वंशजों ने सूत्र अपनाया

भारद्वाज गोत्र की शिखा परंपरा दक्षिण है –
अर्थात इस गोत्र के वंशज अपनी शिखा को दाई और घुमा कर बांधते हैं

भारद्वाज गोत्र की पाद परंपरा दक्षिण है –
अर्थात इस गोत्र के वंशज पहले अपना दाया पैर धोते हैं

भारद्वाज गोत्र के प्रवर है – अन्गिरस बार्हस्पत्य व भरद्वाज है प्रवर अर्थात श्रेष्ठ
गोत्रकारों के पूर्वज और महान ऋषि को प्रवर कहा गया है

भारद्वाज गोत्र के आस्पद है द्विवेदी, पाठक, उपाध्याय, चतुर्वेदी, पांडे
आस्पद अर्थात वह प्रजातियां जो कि किसी व्यक्ति के नाम या स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुई

भारद्वाज गोत्र के इष्टदेव – भगवान् शिव है
इस विचारधारा में समय-समय पर रुचि अनुसार परिवर्तन हुआ

भरद्वाज ऋषि ऋग्वेद के छठे मंडल के दृष्टा जिन्होंने 765 मंत्र लिखे हैं। वैदिक ऋषियों में भरद्वाज ऋषि का अति उच्च स्थान है। ऋषि भरद्वाज के वंशज भारद्वाज कहलाते है

अंगिरा वंशी भरद्वाज के पिता – बृहस्पति और माता ममता थीं। बृहस्पति ऋषि – अंगिरा के पुत्र होने के कारण ये वंश अंगिरा वंश भी कहलाया जा सकता है। ऋषि भरद्वाज ने अनेक ग्रंथों की रचना की उनमें से यंत्र सर्वस्व और विमानशास्त्र की आज भी चर्चा होती है।

चरक ऋषि ने भरद्वाज को ‘अपरिमित’ कहा है। भरद्वाज ऋषि चंद्रवंशी काशी राज दिवोदास के पुरोहित थे। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के भी पुरोहित थे और फिर प्रतर्दन के पुत्र क्षत्र का भी उन्हीं ने यज्ञ संपन्न कराया था। वनवास के समय प्रभु श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का संधिकाल था।

ऋषि भरद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थी रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। सभी के नाम से अलग-अलग वंश चले। भरद्वाज गोत्र की वंशावली में अधिकतर उत्तर भारत के ब्राह्मण पाये जाते है, किन्तु कुछ स्थानों पर क्षत्रिय भी इस गोत्र में सम्मिलित है ।

विन्ध्याचल पर्वत शृंखला के उत्तरीय भूभाग में ऋषि भरद्वाज से जो वंश परंपरा प्रारंभ हुआ वे सभी वंशज भारद्वाज गोत्रीय कहलाए भारद्वाज गोत्र की कुलदेवी – बन्धुकशानिदेवी/श्रीमाता के नाम से जानी जाती है

भारद्वाज ऋषि का इतिहास –
लोक कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करना है उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा था वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्होंने सौ- सौ वर्ष के तीन जन्म लिए थे भारद्वाज ऐसे ऋषि थे जो मंत्र दृष्टा होने के साथ-साथ आयुर्वेद के भी बड़े आचार्य थे वह बहुत अच्छे शाम गायक भी थे इसलिए चार प्रमुख शाम गायकों में इनका नाम है लोगों के कल्याण के लिए उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की उनका जीवन दर्शन हमारे लिए प्रेरणा स्रोत है उन्होंने ज्ञान अर्जित किया और उसे जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया यही कारण है कि वेदों और पुराणों में भी इनकी महिमा गाई गई है भारद्वाज ऋषि राजा भरत के कुल पुरोहित थे दुष्यंत पुत्र राजा भरत ने अपना राजपाट इन्हीं भारद्वाज को सौंपा तथा खुद जंगल में जाकर रहने लगे

भारद्वाज ऋषि का जन्म –
भारद्वाज बृहस्पति और ममता के पुत्र थे लेकिन कालांतर में यह राजा भरत के दत्तक पुत्र हुए थे इसके बाद कश्यप और अदिति के पुत्रों ने इनका पालन-पोषण किया था जब भरत का वंश खत्म होने लगा तब उन्हें दत्तक रूप में प्रदान किया शास्त्रों में भी इसका वर्णन है कहते हैं जब सम्राट भरत का वंश खत्म होने लगा तब उन्होंने संतान पाने के लिए मरुथम नामक यज्ञ किया इससे मरुद गणों ने प्रसन्न होकर भरत को भारद्वाज नाम का पुत्र दिया था आगी वंश में हुआ था इनके पिता बृहस्पतिऔर माता का नाम ममता था लेकिन पैदा होते ही माता-पिता में इस बात को लेकर विवाद हो गया कि इनका पालन-पोषण कौन करें दोनों ने एक दूसरे से कहा था तुम इसे संभालो उसी समय से इनका नाम भारद्वाज पड़ा था इसके बाद इन्होंने अपनी तपस्या के बलबूते पर इस नाम को अमर कर दिया

तीन जन्मों का वरदान –
राज ऋषि ने अपनी तपस्या से इंद्र देव को प्रसन्न कर उनसे 100 -100 वर्षों के तीन जन्मों का वरदान मांगा था दरअसल भारद्वाज वेदों का अध्ययन करना चाहते थे पर समय की कमी के कारण ना हो सका भारद्वाज ऋषि 3 जन्मों के बाद भी वेदों का पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके इसके बाद इन्होंने इंद्रदेव से चौथा जन्म मांगा तो उन्होंने इन्हें एक उपाय बताया और कहा कि तुम “सबित्र अग्नि जयन” यज्ञ करो इन्होंने ऐसा ही किया और तब जाकर इनकी जिज्ञासा पूर्ण हुई थी

भारद्वाज ऋषि का विवाह –
भारद्वाज ऋषि का विवाह सुशीला से हुआ था और उनका एक पुत्र था गर्ग और एक पुत्री देववर्षिनी थी | भारद्वाज ऋषि का इतिहास |

विमान शास्त्र की रचना –
ऋषि भारद्वाज ने विमान शास्त्र की रचना की थी इसका अर्थ होता है- पक्षियों के समान वेग होने के कारण इसे विमान कहते इस ग्रंथ में विमान चालक के लिए कई रहस्यों की जानकारी बताई गई है इन राशियों को जान लेने के बाद ही पायलट विमान चलाने का अधिकारी हो सकता है

श्री राम से मिलन –
भारद्वाज ऋषि का श्री राम के साथ अनन्य अनुराग था वनवास के समय श्री राम इनके आश्रम में गए थे भारद्वाज ने श्री राम का बड़े प्रेम से सत्कार किया था श्रीराम ने इनसे रहने के लिए स्थान भी मांगा था तब इन्होंने अपना आश्रम ही लेने का अनुरोध किया था श्रीराम ने इनका आश्रम लेने के लिए मना कर दिया था श्रीराम द्वारा इस प्रस्ताव को नहीं मानने पर चित्रकूट में उनके लिए व्यवस्था की थी रावण का वध करने के बाद भी श्रीराम इनके पास आए थे श्रीराम ने प्रसन्न होकर इन को वरदान दिया था कि जिस मार्ग से गुजरोगे उस मार्ग से वृक्षों के फल फूल बसंत के मौसम की तरह खिल उठेंगे ऐसा कहते हैं जो द्वापरयुग में श्रीकृष्ण से भी इन की भेंट हुई थी

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