बौद्ध धर्म क्या है

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बौद्ध धर्म क्या है

आज विश्व में हिंसा और सामाजिक भेदभाव बढ़ रहा है। मनुष्य विचारों से हिंसात्मक होता जा रहा है। आतंकवाद या फिर दो देशों के बीच युद्ध जैसे हालात हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में बौद्ध दर्शन कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है। व्यक्ति के विनाशकारी विचारों को बदलना और उन पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है।

भारत बहुत बड़ा देश है। आर्य जाति की विविध शाखाओं ने भारत के विविध प्रदेशों में बस कर अनेक जनपदों का निर्माण किया था। शुरू में इनमें एक ही प्रकार का धर्म प्रचलित था। प्राचीन आर्य ईश्वर के रूप में एक सर्वोच्च शक्ति की पूजा किया करते थे। प्रकृति की भिन्न-भिन्न शक्तियों में ईश्वर के विभिन्न रूपों की कल्पना कर के देवताओं के रूप में उनकी भी उपासना करते थे। यज्ञ इन देवताओं की पूजा का क्रियात्मक रूप था। धीरे-धीरे यज्ञों का कर्मकाण्ड अधिकाधिक जटिल होता गया। याज्ञिक लोग विधि-विधानों और कर्मकाण्ड को ही स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन समझने लगे। प्राचीन काल में यज्ञों का स्वरूप बहुत सरल था। बाद में पशुओं की बलि अग्निकुण्ड में दी जाने लगी। पशुओं की बलि पाकर अग्नि व अन्य देवता प्रसन्न व सन्तुष्ट होते हैं, और उससे मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त कर सकता है, यह विश्वास प्रबल हो गया। इसके विरुद्ध अनेक विचारकों ने आवाज़ उठाई। यज्ञ एक ऐसी नौका के समान है, जो अदृढ़ है और जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, यह विचार ज़ोर पकड़ने लगा। शूरसेन देश के सात्वत लोगों में जो भागवत-सम्प्रदाय महाभारत के समय से प्रचलित था, वह यज्ञों को विशेष महत्त्व नहीं देता था। वासुदेव कृष्ण इस मत के अन्यतम आचार्य थे। भागवत लोग वैदिक मर्यादाओं में विश्वास रखते थे, और यज्ञों को सर्वथा हेय नहीं मानते थे। पर याज्ञिक अनुष्ठानों का जो विकृत व जटिल रूप भारत के बहुसंख्यक जनपदों में प्रचलित था, उसके विरुद्ध अधिक उग्र आन्दोलनों का प्रारम्भ होना सर्वथा स्वाभाविक था। आर्यों में स्वतन्त्र विचार की प्रवृत्ति विद्यमान थी, और इसी का यह परिणाम हुआ कि छठी सदी ई० पू० में उत्तरी बिहार के गणराज्यों में अनेक ऐसे सुधारक उत्पन्न हुए, जिन्होंने यज्ञप्रधान वैदिक धर्म के विरुद्ध अधिक बल के साथ आन्दोलन किया, और धर्म का एक नया स्वरूप जनता के सम्मुख उपस्थित किया।

इन सुधारकों ने केवल याज्ञिक अनुष्ठानों के खिलाफ़ ही आवाज़ नहीं उठाई, अपितु वर्ण भेद का भी विरोध किया, जो छठी ई० पू० तक आर्यों में भली-भाँति विकसित हो गया था। आर्य-भिन्न जातियों के सम्पर्क में आने से आर्यों ने अपनी रक्तशुद्धता को कायम रखने के लिये जो अनेक व्यवस्थाएं की थीं, उनके कारण आर्य और दास (शूद्र) का भेद तो वैदिक युग से ही विद्यमान था। धीरे-धीरे आर्यों में भी वर्ण या जाति भेद का विकास हो गया था। याज्ञिक अनुष्ठानों के विशेषज्ञ होने के कारण ब्राह्मण लोग सर्वसाधारण ’आर्य विश:’ से अपने को ऊँचा समझने लगे थे। निरन्तर युद्धों में व्यापृत रहने के कारण क्षत्रिय सैनिकों का भी एक ऐसा वर्ग विकसित हो गया था, जो अपने को सर्वसाधारण जनता से पृथक समझता था। ब्राह्मण और क्षत्रिय न केवल अन्य आर्यों से ऊँचे माने जाते थे, अपितु उन दोनों में भी कौन अधिक ऊँचा है, इस सम्बन्ध में भी वे मतभेद रखते थे। इस दशा में छठी सदी ई० पू० के इन सुधारकों ने जातिभेद और सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध भी आवाज़ उठाई, और यह प्रतिपादित किया कि कोई भी व्यक्ति अपने गुणों व कर्मों के कारण ही ऊँचा व सम्मानयोग्य होता है, किसी कुल-विशेष में उत्पन्न होने के कारण नहीं।

यहाँ यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि उत्तरी बिहार के जिन राजगण्यों में इस धार्मिक सुधार का प्रारम्भ हुआ, उनके निवासियों में आर्यभिन्न जातियों के लोग बड़ी संख्या में विद्यमान थे। वहाँ के क्षत्रिय भी शुद्ध आर्य-रक्त के न होकर व्रात्य क्षत्रिय थे। सम्भवत: छठी सदी ई०पू० से पहले भी उनमें वैदिक मर्यादा का सर्वांश में पालन नहीं होता था। ज्ञातृक गण में उत्पन्न हुए वर्धमान महावीर ने जिस नये जैन धर्म का प्रारम्भ किया, उससे पूर्व भी इस धर्म के अनेक तीर्थंकर व आचार्य हो चुके थे। इन जैन तीर्थंकरों के धर्म में न याज्ञिक अनुष्ठानों का स्थान था, और न ही वेदों के प्रामाण्य का। वसु चैद्योपरिचर के समय में प्राच्य भारत में याज्ञिक कर्म-काण्ड के सम्बन्ध में स्वतन्त्र विचार की जो प्रवृत्ति शुरू हुई थी, शायद उसी के कारण उत्तरी बिहार के इस धर्म ने वैदिक मान्यताओं की सर्वथा उपेक्षा कर दी थी।

बौद्ध धर्म ऐसे नियमों का संग्रह है जो हमें यथार्थ के सही स्वरूप को पहचान कर अपनी संपूर्ण मानवीय क्षमताओं को विकसित करने में सहायता करता है। बौद्ध दर्शन में परस्पर निर्भरता, सापेक्षता और कारण-कार्य संबंध जैसे विषयों के बारे में चर्चा की जाती है। इसमें समुच्चय सिद्धांत और तर्क-वितर्क पर आधारित तर्कशास्त्र की एक विस्तृत व्यवस्था है जो हमें अपने चित्त की दोषपूर्ण कल्पनाओं को समझने में सहायता करती है। बौद्ध नीतिशास्त्र स्वयं अपने लिए और दूसरों के लिए हितकारी और हानिकारक बातों के बीच भेद करने की योग्यता पर आधारित है। बौद्ध धर्म मूलत: अनीश्वरवादी और अनात्मवादी है। अर्थात इसमें ईश्वर और आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है। लेकिन पुनर्जन्म को मान्यता दी गई है। बुद्ध ने सांसारिक दुखों के संबंध में चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया और मध्यम मार्ग बता कर रास्ते दिखाए।

आज विश्व में हिंसा और सामाजिक भेदभाव बढ़ रहा है। मनुष्य विचारों से हिंसात्मक होता जा रहा है। आतंकवाद या फिर दो देशों के बीच युद्ध जैसे हालात हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में बौद्ध दर्शन कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है। व्यक्ति के विनाशकारी विचारों को बदलना और उन पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है। लगभग ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने मानवीय प्रवृतियों का विश्लेषण करते हुए कहा था कि मनुष्य का मन ही सारे कर्मों का नियंता है। इसलिए मानव की गलत प्रवृतियों को नियंत्रित करने के लिए उसके मन में सदविचारों का प्रवाह कर उसे सदमार्ग पर ले जाना जरूरी है। उन्होंने यह सदमार्ग बौद्ध धर्म के रूप में दिया था। अत: आज मानव-मात्र की कुप्रवृत्तियों, जैसे- हिंसा, शत्रुता, द्वेष, लोभ आदि से मुक्ति पाने के लिए बौद्ध दर्शन को समझने जरूरत है।

महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म में सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक और राजनीतिक स्वतंत्रता व समानता की शिक्षा दी है। बुद्ध ने सांसारिक दुखों के संबंध में चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया था। ये आर्य सत्य बौद्ध धर्म का मूल आधार हैं। इसके साथ ही सांसारिक दुखों से मुक्ति के लिए बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग पर चलने की बात कही। आष्टांगिक मार्ग के साधन हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। मध्यम मार्ग का उपदेश देते हुए बुद्ध ने कहा कि मनुष्य को सभी प्रकार के आकर्षण और कायाक्लेश से बचना चाहिए। अर्थात, न तो अत्यधिक इच्छाएं करनी चाहिए, न ही अत्यधिक तप (दमन) करना चाहिए, बल्कि इनके बीच का मार्ग अपना कर दुख-निरोध का प्रयास करना चाहिए। सम्यक का अर्थ दो अतियों के बीच मध्यम स्थिति है। दोनों तरह की अति बुरी हैं। बीच का रास्ता ही ठीक है। बुद्ध का कहना है जो व्यक्ति अपनी जीवन-परिदृष्टि ठीक रखेगा, जो सही संकल्प या इरादा रखेगा, जिसकी वाणी अच्छी होगी, कर्म अच्छे होंगे, जिन्होंने जीविका के लिए बेहतर अर्थात भ्रष्टाचार-मुक्त साधन चुने होंगे, जो अपनी इंद्रियों को नियंत्रण में रखने के लिए व्यायाम करते रहेंगे, वे दुखमुक्त होंगे।

सम्यक वाणी, सम्यक कर्म और सम्यक जीविका ‘शील’ है और सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति व सम्यक समाधि को ‘समाधि’ कहते हैं। विभिन्न बौद्ध ग्रंथों में इसकी विवेचना की गई है। जैसे शील पांच हैं, जिन्हे पंचशील कहा जाता है। कोई व्यक्ति संघ में शामिल होने के पूर्व इन पंचशील की शपथ लेता है। ये पांच शील हैं- अहिंसा, चोरी न करना, झूठ न बोलना, काम संबंधी व्यभिचार न करना और नशा नहीं करना। ये पांच शील आम जनों के लिए है। लेकिन भिक्षुओं के लिए पांच और शील हैं। उनके लिए दिन में कई दफा भोजन, आभूषण या कीमती चीजें धारण करना, स्वर्ण-रजत छूना, संगीत, और गद्देदार बिस्तर तक की मनाही है। इसी तरह सूक्ष्म से सूक्ष्मतम चीजों पर बौद्धों ने पर्याप्त विमर्श किया है। यह दर्शन पूरी तरह से यथार्थ में जीने की शिक्षा देता है। दलाई लामा ने कहा है- ‘हम आस्तिक हों या अनीश्वरवादी, ईश्वर को मानते हों या कर्म में विश्वास रखते हों, हममें से प्रत्येक नैतिक नीतिशास्त्र का अनुशीलन कर सकता है।’

आज पूरी दुनिया हिंसा, धर्मिक उन्माद, नस्लीय टकराव जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रही है। मानव अस्तित्व के लिए बड़े और गंभीर खतरे खड़े हो गए हैं। इंसान ने जहां विज्ञान, तकनीकी और यांत्रिकी में विकास और उसके उपयोग से अपार समृद्धि हासिल कर ली है, तो दूसरी ओर स्वार्थ, लोभ, हिंसा आदि भावनाओं के वशीभूत होकर वह आपसी कलह, लूट-खसोट, अतिक्रमण जैसे विनाशकारी मार्ग को भी अपना रहा है। अत: आज दुनिया में भौतिक संपदा के साथ-साथ मानव अस्तित्व को भी बचाना आवश्यक हो गया है। इसलिए आदमी के विनाशकारी विचारों को बदलना और उस पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है। बुद्ध ने मानवीय प्रवृतियों का विश्लेषण करते हुए कहा था कि मनुष्य का मन ही सभी कर्मों का नियंता है। अत: मानव की गलत प्रवृतियों को नियंत्रित करने के लिए उसके मन में सद् विचारों का प्रवाह कर उसे सदमार्ग पर ले जाना आवश्यक है। उन्होंने यह सदमार्ग बौद्ध धम्म के रूप में दिया था।

आपसी शत्रुता के बारे में बुद्ध ने कहा था कि वैर से वैर शांत नहीं होता। यह सूत्र हमेशा से सार्थक रहा है। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने भी कहा था कि हिंसा द्वारा प्राप्त की गई जीत स्थायी नहीं होती, क्योंकि उसे प्रतिहिंसा द्वारा हमेशा पलटे जाने का डर रहता है। अत: वैर को जन्म देने वाले कारकों को बुद्ध ने पहचान कर उनको दूर करने का मार्ग बहुत पहले ही प्रशस्त कर दिया था। उन्होंने मानवमात्र के दुखों को कम करने के लिए पंचशील और अष्टांगिक मार्ग के नैतिक व कल्याणकारी जीवन दर्शन का प्रतिपादन किया था।

आज भारत सहित विश्व में जो धार्मिक कट्टरवाद व टकराव दिखाई दे रहा है, वह सबके लिए बड़ी चिंता और चुनौती का विषय है। भारत में सांप्रदायिक दंगों और जातीय-जनसंहारों में जितने निर्दोष लोगों की जानें गई हैं, वे भारत द्वारा अब तक लड़ी गई सभी लड़ाइयों में मारे गए सैनिकों से कहीं अधिक हैं। अत: अगर भारत में धार्मिक-स्वतंत्रता और धर्म-निरपेक्षता के संवैधानिक अधिकार को बचाना है तो बौद्ध धर्म के धार्मिक सहिष्णुता, करुणा और मैत्री के सिद्धांतों को अपनाना जरूरी है। दुनिया में धार्मिक टकरावों का एक कारण इन धर्मों को विज्ञान द्वारा दी जा रही चुनौती भी है। ईश्वरवादी धर्मों के अनुयायियों की संख्या कम होती जा रही है क्योंकि वे विज्ञान की तर्क और परीक्षण वाली कसौटी पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं।

अत: वे अपने को बचाए रखने के लिए तरह-तरह के प्रलोभनों द्वारा, चमत्कारों का प्रचार एवं अन्य हथकंडों का इस्तेमाल करके अपने अनुयायियों को बांध कर रखना चाहते हैं। उनमें अपने धर्म की अवैज्ञानिक और अंध-विश्वासी धारणाओं को बदलने की स्वतंत्रता एवं इच्छाशक्ति का नितांत अभाव है। इसके विपरीत बौद्ध धर्म विज्ञानवादी और परिवर्तनशील होने के कारण विज्ञान के साथ चलने और जरूरत पड़ने पर अपने को बदलने में सक्षम है। इन्हीं गुणों के कारण आंबेडकर ने भविष्यवाणी की थी कि यदि भविष्य की दुनिया को धर्म की जरूरत होगी तो इसको केवल बौद्ध धर्म ही पूरा कर सकता है।

बुद्ध के पंचशील सिद्धांत आज समाज और देश-दुनिया के लिए प्रासंगिक हैं। आज विश्व में अशांति, आतंक, हिंसा, भय और युद्ध का वातावरण, असमानता, गरीबी, मानवीय मूल्यों का ह्रास, अनैतिकता ,लालच, चोरी, वैमनस्यता इत्यादि समस्याएं हैं। ऐसा नहीं कि ये सब बुद्ध के समय में नहीं थीं। लेकिन तब बुद्ध ने उन समस्याओं के समाधान के लिए कार्य किए, समाज के सामने नए सिद्धांत दिए। ऐसे में बुद्ध के विचारों को अपने आचरण में लाकर हम शांति-पूर्ण मानवता, नैतिकता और मूल्यों पर आधरित समाज की कल्पना कर सकते हैं और अहिंसा पर आधारित विश्व में शांति, सदभावना और कल्याण की कल्पना कर सकते हैं।

मद्रास हाई कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि बौद्ध धर्म जाति रहित है और इस धर्म को अपनाने वालों को अनुसूचित जाति का लाभ नहीं दिया जा सकता। कोर्ट ने यह फैसला उस याचिका में सुनाया है जिसमें याची ने नौकरी के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र दिए जाने की मांग की थी।

जस्टिस आर सुब्बिहा और जस्टिस आर पोंगिअप्पन की बेंच ने कहा, ‘संविधान के तहत निर्धारित अनुसूचित जाति सूची में बौद्ध धर्म की आदि द्रविड़ के रूप में कोई प्रविष्टि नहीं है। इस तरह का नोटिफिकेशन न होने के कारण इस समुदाय के लोगों को अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता।’ दअसल याची जीजे तमिलारासू की ओर से इरोड जिला कलेक्टर से अनूसूचित जाती का प्रमाणपत्र मांगा गया था। इस आवेदन को 24 अगस्त 2017 को निरस्त कर दिया गया था। जिसके बा याची ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी।

तमिलारासू का जन्म 5 दिसंबर 1970 को हुआ था। उनके माता-पिता क्रिस्चन थे और उन्होंने उनका नाम विक्टर जोसेफ रखा था। जब वह 11वीं कक्षा में थे तो उन्होंने 12 जून 1989 में खुद को क्रिस्चन आदि द्रविड़ बताते हुए अनूसूचित जाति का प्रमाणपत्र हासिल कर लिया था। उन्होंने धर्म परिवर्तन करके बौध धर्म अपना लिया और अपना नाम बदलकर जीजे तमिलारासू कर लिया।

2 सितंबर 2015 को उन्होंने खुद को बौद्ध धर्म का आदि द्रविड़ बताते हुए अनुसूचित जाति के प्रमाणपत्र के लिए आवेदन किया। हालांकि प्रशासन ने उनका आवेदन यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि उन्होंने सिर्फ अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र पाने के लिए धर्म परिवर्तन किया है। आवेदन निरस्त होने के बाद उन्होंने हाई कोर्ट में याचिका की थी।

याची ने मांग की थी कि सरकार को निर्देशित किया जाए कि धर्म परिवर्तन करने वाले को अगर समुदाय के लोग अपना लेते हें तो उन्हें उस जाति का प्रमाणपत्र दिया जाए। सरकार की तरफ से कहा गया कि याची का जन्म क्रिस्चन धर्म में हुआ था। उन्होंने अप्रैल 2015 तक क्रिस्चन धर्म ही माना और यह समुदाय पिछड़ी जाति में आता है। उन्होंने यह भी कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति संशोधन ऐक्ट 1976 में भी बौद्ध धर्म को कहीं भी आदि द्रविड़ नहीं बताया गया है इसलिए उन्हें अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता।

इस काल में बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका महाकच्छायन की थी। उनका जन्म उज्जयिनी में हुआ था। बुद्ध से मिलकर वे बहुत प्रभावित हुए थे। फिर तो उन्होंने बुद्ध के उपदेशों को घर- घर तक प्रभावशाली ढ़ग से पहुँचाया। उनके कहने पर समकालीन राजा प्रद्योत ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती गई। उनके सत्प्रयासों से पूरे क्षेत्र में बौद्ध धर्म एक प्रभावशाली धर्म के रुप में उभरा। चूँकि प्रचार व उपदेश का माध्यम वहाँ की स्थानीय भाषा थी, अतः इसकी पहुँच व्यापक थी।

चूँकि बुद्ध के कुछ शिष्य अवन्ति से थे, अतः यह संभव है कि अशोक से पहले भी उज्जैन व साँची में बौद्ध धर्म से जुड़े इमारत बन चुके हैं। महावंश में चैत्यागिरि नाम के एक विहार का उल्लेख मिलता है, जिसकी पहचान साँची से की जाती है, जहाँ अशोक ने भी स्तुप व स्तंभ बनवाया था। अशोक से पहले बना यह चैत्य वर्त्तमान स्तुप नहीं हो सकता, क्योंकि स्तुप- पूजन की परंपरा अशोक के समय से ही शुरु होती है। राजकुमारी देवी ने चैत्यगिरि में एक विहार का निर्माण करवाया था, जिसका पुरातात्विक प्रमाण आज भी मिलता है।

कहा जाता है कि विदिशा की निवासी देवी, जो बाद में अशोक की पत्नी बनी, पहले से ही बौद्ध थी, लेकिन अशोक ने मोगालिपुत्ता तिस्स व अन्य भिक्षुओं के प्रभाव से, परिस्थितिवश, अपना धर्म परिवर्त्तन किया। अशोक के आश्रय में बौद्ध धर्म का बहुत प्रसार हुआ। उसके द्वारा ईंट- निर्मित साँची- स्तुप का बाद में कई बार विस्तार हुआ।

उज्जैन बौद्ध धर्म का केंद्र बना रहा। यहाँ एक विशाल तथा दो घोड़े स्तुप मिले हैं। ईटों के आकार से पता चलता है कि यह मौर्यकालीन है। संभवतः इसका निर्माण भी अशोक ने ही करवाया था। विदिशा मथुरा मार्ग में स्थित तुमैन (तुम्बवन) ये भी अशोक ने कई स्तुप बनवाए थे। इसके अलावा महेश्वर (महिष्मती) से भी बौद्ध इमारतों के प्रमाण मिले हैं। यहाँ मिले मृदभाण्ड से स्पष्ट हो जाता है कि ये किसी- न- किसी रुप से बौद्ध- धर्म से संबद्ध थे।

शुंग- सातवाहन- शक काल –

अशोक की मृत्यु के बाद पुष्यमित्र शुंग के शासन काल में बौद्ध धर्म के विकास में कई अड़चनें आयी। पुष्यमित्र, जो ब्राह्मण धर्म का कट्टर अनुगामी था। कहा जाता है कि उसने कई बौद्ध- निवासों को नष्ट करवा दिया तथा साकल (सियाल कोट, पंजाब) के सैन्य अभियान के दौरान कई बौद्ध- भिक्षुओं की हत्या करवाई।

पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी ने अशोक द्वारा ईंट- निर्मित साँची के स्तुप को ऊपर से प्रस्तर- निर्मित एक भित्ति से ढ़का था। साँची का दूसरा तथा तीसरा स्तुप भी
शुंगकाल में ही निर्मित है। भरहुत के स्तुप के अभिलेखों से पता चलता है कि विदिशा के राजा रेवतीमित्र व उनकी रानियों ने भरहुत के स्तुप के निर्माण में सहयोग दिया था।

कण्व तथा सातवाहन काल में इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म अपने उत्कर्ष पर था। इसी काल में साँची के मुख्य स्तुप के चारों तरफ तथा तीसरे स्तुप के एक तरफ प्रसिद्ध द्वार बनाये गये। यह निर्माण राजा शतकर्णी के शासन में हुआ।

बौद्ध धर्म का अस्तित्व पश्चिमी क्षत्रपों के काल में भी बना रहा। उज्जैन में मिला चाहरदीवारी का हिस्सा, जो संभवतः बौद्ध स्तुप का ही एक हिस्सा था, इसी काल में बना माना जाता है।

इस काल में साँची बौद्ध तीर्थ का केंद्र बन गया। मालवा व मालवा के बाहर से भी लोग यहाँ आने लगे। इनका उल्लेख यहाँ के अभिलेखों में मिलता है।

अशोक काल के बाद दूसरी सदी ई. पू. के अंत में बौद्ध धर्म की हैमवत शाखा को प्रसिद्धि मिली। यह धर्म के विभिन्न स्रोतों से प्रभावित था। इसके प्रचार में गोतीपुत की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्हें “काकनाव प्रभासन’ (काकनाव का प्रकाश) की उपाधि से सम्मानित किया गया था। बुद्ध के शिष्य महाभोगलान व सारिपुत्र के भ साँची व सतधारा के स्तुपों में डाला गया था।

साँची के बौद्ध थेरवादी थे, परंतु प्रथम सदी ई. पू. में बौद्ध धर्म ने एक नया मोड़ लिया। अभिलेखों से पता चलता है कि अन- आचार्याकुल (अन्याचार्या कुल) अस्तित्व में आ गया।

कुषाण काल की बुद्ध व बौधिसत्वों की मूर्तियों से पता चलता है कि साँची में बाहरी प्रभाव का आना शुरु हो गया था। साँची में मिला वीटिम अभिलेखों से स्पष्ट होता है कि मालवा की साधारण जनता में इसका प्रसार होने लगा था। स्तुपों के निर्माण में सभी वर्ग व व्यवसाय के लोगों ने सहयोग दिया था।

बौद्ध संतों को कुछ विशेष उपाधियाँ देने का प्रचलन शुरु हुआ, जैसे अया (उदार स्वामी), थेरा (venerable ), भदत (सबसे सऋदय), मानक (ग्रंथों का पठन करने वाला), धमकाथिका (नियम का उपदेशक), सधिविहारी (साथ में वास करने वाला भिक्षु), विनायक (शिक्षक), सुतातिक व सुतातिकिनी (जो सुत्तो की अच्छी जानकारी रखता है), पंचनेकयिका (पाँच निकायों व सपुरिसा की जानकारी रखने वाला संत)।

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