देवासी समाज की गोत्र

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देवासी समाज राजस्थान के पाली,जालोर और सिरोही जिलों आदि में अच्छी संख्या में निवास करते हैं देवासी या गोपालक के नाम से जानी जाती यह जाति रबारी जाति में से उतर कर आई है। ऐसा कई विद्वानो का मानना है। यह जाति भोली भाली और श्रद्धालु होने से देवों का वास इनमें रहता है देवासी का अर्थ – देवो का वास या देव के वंशज होने से इन्हें देवासी के नाम से जाना जाता है। देवासी जाति का इतिहास बहुत पूराना है लेकिन शुरू से ही पशुपालन का मुख्य व्यवसाय और घुमंतू (भ्रमणीय) जीवन होने से कोई आधारभुत ऐतिहासिक ग्रंथ लिखा नहीं गया और अभी जो भी इतिहास मिल रहा है वो दंतकथाओ पर आधारित है। मानव बस्ती से हमेशा दूर रहने से देवासी समाज समय के साथ परिवर्तन नहीं ला सका है। अभी भी इस समाज में रीति-रिवाज, पोशाक ज्यों का त्यों रहा है। 21वीं सदी में शिक्षित समाज के संम्पर्क में आने से शिक्षण लेने से सरकारी नौकरी, व्यापार, उद्योग, खेती वगैरह जरूर अपनाया है। हर जाति की उत्पत्ति के बारे में अलग अलग राय होती है वैसे ही इस जाति के बारे में भी कई मान्यताएँ हैं। इस जाति के बारे में एक पौराणीक दंतकथा प्रचलित है- कहा जाता है कि माता पार्वती एक दिन नदी के किनारे गीली मिट्टी से ऊँट जैसी आकृति बना रही थी तभी वहाँ भोलेनाथ भी आ गये। माँ पार्वती ने भगवान शिव से कहा- हे महाराज! क्यो न इस मिट्टी की मुर्ति को संजीवीत कर दे। भोलेनाथ ने उस मिट्टी की मुर्ति (ऊँट) को संजीवन कर दिया। माँ पार्वती ऊँट को जीवित देखकर अतिप्रसन्न हुई और भगवान शिव से कहा-हे महाराज! जिस प्रकार आप ने मिट्टी के ऊँट को जीवित प्राणी के रूप में बदला है, उसी प्रकार आप ऊँट की रखवाली करने के लिए एक मनुष्य को भी बनाकर दिखलाओ। आपको पता है उसी समय भगवान शिव ने अपनी नजर दोड़ायी सामने एक समला का पेड़ था। समला के पेड़ के छिलके से भगवान शिव ने एक मनुष्य को बनाया। समला के पेड से बना मनुष्य सामंड गौत्र(शाख) का देवासी था। आज भी सामंड गौत्र देवासी जाति में अग्रणीय है। देवासी भगवान शिव का परम भगत है। शिवजी ने देवासी को ऊँटो के टोलो के साथ विदा किया। उनकी चार बेटी हुई, शिवजी ने उनके ब्याह राजपूत (क्षत्रीय) जाति के पुरुषो के साथ किए और उनकी संतान अलग हो गई और और एक अलग देवासी जाति हो गई देवासी जाति के रूप में उत्पन हुई फालना और सांडेराव का बिच एक निम्बेश्वर महादेव का मंदिर है जो देवसीयो का आस्था स्थल है लोगो का कहना हे की महादेव निम्बेश्वर एक देवासी को मिले थे ये लोग अपनी विशिष्ट संस्कृति और वेशभूषा के लिए जाने जाते हैं इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन और उससे जुड़े व्यवसाय है जैसे दूध,उन् आदि का व्यापार वर्तमान में ओटाराम देवासी सिरोही विधानसभा से विधायक है

देवासी समाज इतिहास –
मानव जाति की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं समाज का इतिहास भी पहेली बना हुआ है। मानव की उत्पत्ति के इतिहास कीभॉति ही हर जाति एवं उपजाति की उत्पत्ति काइतिहास भी एक गूढ़ रहस्य बना हुआ है। विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के बारे मे या तो इतिहास मौन है या इतिहासकारों ने आपसी विवादों और तर्क – वितर्कों का ऐसा अखाड़ा बना रखा है कि इस प्रकार के विभिन्न मत मातान्तरों का अध्ययन करने पर भी सच्चाई तक पहुंच पाना दुर्लभ नही कठीन अवष्य है। अगर हम हमारे देश के प्राचीन इतिहास को उठाकर देखें तो वैदिक काल में यहा पर कोई जाति प्रथा नहीं थी। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षेत्रिय, वैष्य, शूद्र में बॉंटा गया था यह वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के जन्म संस्कारो पर आधारित न होकर कर्म संस्करों पर आधारित थी। सच ही कहा है- व्यक्ति जन्म से नहीं , कर्म से महान बनता है।

देवासी की उत्पत्ति और इतिहास –
रेबारी, राईका, देवासी, देसाई या गोपालक के नाम से जानी जाती यह जाति राजपूत जाति में से उतर कर आई है। ऐसा कई विद्वानो का मानना है। रेबारी को भारत में रायका, देसाई, देवासी, धनगर, पाल, हीरावंशी, कुरुकुरबा, कुरमा, कुरबरु, गडरिया, गाडरी, गडेरी, गद्दी, बधेल के नाम से भी जाने जाते है।

यह जाति भोली भाली और श्रद्धालु होने से देवों का वास इनमें रहता है या देव के वंशज होने से इन्हें देवासी के नाम से भी जाना जाता है। रेबारी शब्द मूल रेवड शब्द मे से उतर कर आया है। रेवड़ यानि जो ढोर या पशु या गडर का टौला और पशुओ के टोले को रखता है उसे रेवाड़ी के नाम से पहचाना जाता हैं और बाद मे अपभ्रंश हो जाने से यह शब्द रेबारी हो गया। रेबारी पूरे भारत में फैले हुए है, विशेष करके उत्तर पश्चिम और मध्य भारत में। वैसे तो पाकिस्तान मे भी अंदाजित 8000 रेबारी है।

रेबारी जाति का इतिहास बहुत पूराना है लेकिन शुरू से ही पशुपालन का मुख्य व्यवसाय और घुमंतू (भ्रमणीय) जीवन होने से कोई आधारभुत ऐतिहासिक ग्रंथ लिखा नहीं गया और अभी जो भी इतिहास मिल रहा है वो दंतकथाओ पर आधारित है। मानव बस्ती से हमेशा दूर रहने से रेबारी समाज समय के साथ परिवर्तन नही ला सका है। अभी भी इस समाज में रीति-रिवाज, पोशाक ज्यों का त्यों रहा है। 21वीं सदी में शिक्षित समाज के संम्पर्क मे आने से शिक्षण लेने से सरकारी नौकरी, व्यापार, उद्योग, खेती वगैरह जरूर अपनाया है।

हर जाति की उत्पत्ति के बारे में अलग अलग राय होती है वैसे ही इस जाति के बारे में भी कई मान्यताएँ है। इस जाति के बारे में एक पौराणीक दंतकथा प्रचलित है- कहा जाता है कि माता पार्वती एक दिन नदी के किनारे गीली मिट्टी से ऊँट जैसी आकृति बना रही थी तभी वहाँ भोलेनाथ भी आ गये। माँ पार्वती ने भगवान शिव से कहा- हे महाराज! क्यो न इस मिट्टी की मुर्ति को संजीवीत कर दे। भोलेनाथ ने उस मिट्टी की मुर्ति (ऊँट) को संजीवन कर दिया। माँ पार्वती ऊँट को जीवित देखकर अतिप्रसन्न हुई और भगवान शिव से कहा-हे महाराज! जिस प्रकार आप ने मिट्टी के ऊँट को जीवित प्राणी के रूप में बदला है, उसी प्रकार आप ऊँट की रखवाली करने के लिए एक मनुष्य को भी बनाकर दिखलाओ। आपको पता है उसी समय भगवान शिव ने अपनी नजर दोड़ायी सामने एक समला का पेड़ था। समला के पेड़ के छिलके से भगवान शिव ने एक मनुष्य को बनाया। समला के पेड से बना मनुष्य सामंड गौत्र(शाख) का रेबारी था। आज भी सामंड गौत्र रेबारी जाति में अग्रणीय है। रेबारी भगवान शिव का परम भगत था।

शिवजी ने रेबारी को ऊँटो के टोलो के साथ भूलोक के लिए विदा किया। उनकी चार बेटी हुई, शिवजी ने उनके ब्याह राजपूत (क्षत्रीय) जाति के पुरुषो के साथ किए और उनकी संतती हुई वो हिमालय के नियम के बाहर हुई थी इस लिए वो “राहबारी” या “रेबारी” के नाम से जानी जाने लगी।

एक मान्यता के अनुसार मक्का- मदीना के इलाको मे मुहम्मद पैगम्बर साहब से पहले जो अराजकता फैली थी जिनके कारण मूर्ति पूजा का विरोध होने लगा। उसके परिणाम से इस जाति का अपना धर्म बचाना मुश्किल होने लगा। तब अपने देवी-देवताओं को पालखी मे लेकर हिमालय के रास्ते से भारत में प्रवेश किया था। अभी भी कई रेबारी अपने देवी- देवताओं को मूर्तिरूप प्रस्थापित नहीं करते पालखी मे ही रखते है। उसमें हूण और शक का टौला भी शामिल था। रेबारी जाति में आज भी हूण अटक (Surname) है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है की हुण इस रेबारी जाति मे मिल गये होंगे।

एक ऐसा मत भी है की भगवान परशुराम ने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रीय विहीन किया था तब 133 क्षत्रीयों ने परशुराम के डर से क्षत्रिय धर्म छोड़कर पशुपालन का काम स्वीकार लिया इसलिए वो विहोतर के नाम से जाने जाने लगे। विसोतर या विहोतर का अर्थ- (बीस + सौ + तेरह) मतलब विसोतर यानी 133 गौत्र।

रेबारी जाति का मुख्य व्यवसाय पशुपालन होने के बाद भी महाभारत युग से मध्य राजपूत युग तक राजा महाराजाओं के गुप्त संदेश पहुँचाने का काम तथा बहन-पुत्री और पुत्रवधुओं को लाने या छोडने जाने हेतु अति विश्वासपूर्वक रेबारी का उपयोग ही किया जाता था। ऐसी कई घटनाए इतिहास के पन्नो में दर्ज है। पांडवो के पास कई लोग होने के पश्चात भी महाभारत के युद्ध के समय विराट नगरी के हस्तिनापुर एक रात मे सांढणी ऊँट पर साढे चार सौ मील (४५०मील ) की दूरी तय कर गाण्डीव धारी अर्जुन की पुत्रवधु उत्तरा को सही सलामत पहुँचाने वाला “रत्नो रेबारी” था।

भाट, चारण और वहीवंचियों ग्रंथो के आधार पर मूल पुरुष को 16 लड़कियां हुई और उन 16 लड़कियों का ब्याह 16 क्षत्रिय कुल के पुरुषो साथ किया गया जो हिमालय के नियम के बाहर से थे सोलह के जो वंसज हुए वो “राहबारी” और बाद मे राहबारी का अपभ्रंश होने से “रेबारी” के नाम से पहचानने लगे। बाद मे सोलह की जो सन्तान हुई वो एक सौ तैतीस शाखा में बिखर गई जो विशोतर नात याने एक सौ बीस और तेरह से जानी गई। प्रथम यह जाति रेबारी से पहचानी गई लेकिन वो राजपुत्र या राजपूत होने से रायपुत्र के नाम से और रायपुत्र का अपभ्रंश होने से “रायका” के नाम से गायों का पालन करने से गोपालक के नाम से महाभारत के समय मे पाण्डवों का महत्वपूर्ण काम करने से “देसाई” के नाम से भी यह जाति पहचानी जाने लगी। पौराणिक बातो में जो भी हो, किंतु इस जाति का मूल वतन एशिया मायनोर रहा होगा जहाँ से आर्य भारत भूमि मे आये थे। आर्यो का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था और रेबारी का मुख्य व्यवसाय आज भी पशुपालन हैं इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है की आर्यो के साथ यह जाती भारत में आयी होगी।

जब भारत पर मुहम्मद गजनवी ने आक्रमण किया था तब उसका वीरता पूर्वक सामना करने वाले महाराजा हमीर देव का संदेश भारत के तमाम राजाओं को पहुँचाने वाला सांढणी सवार रेबारी ही तो था।

जूनागढ के इतिहासकार डॉ शंभुप्रसाद देसाई ने नोंधट की है कि वे रावल का एक बलवान रेबारी हमीर मुस्लिमो के शासक के सामने खुशरो खां नाम धारण करके सूबा बना था जो बाद मे दिल्ली की गद्दी पर बैठ कर सुलतान बना था। सन 1901 मे लिखा गया बोम्बे गेझेटियर मे लिखा है की रेबारीओं की शारीरिक मजबूती देख के लगता है की शायद वो पर्शियन वंश के भी हो सकते है और वो पर्शिया से भारत मे आये होंगे रेबारीओं मे एक आग नाम की शाख है और पर्शियन आग अग्नि के पूजक होते हैं।

तो दोस्तों आपको ये पोस्ट केसी लगी ये आप हमे कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं। इस पोस्ट में हमने बहुत ही सावधानी बरती हैं फिर भी कोई गलती हो गयी है तो क्षमा करे।

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