गुप्त राजवंश की उत्पति

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गुप्त राजवंश की उत्पति

गुप्त राजवंश की उत्पति (Origin of Gupta)
गुप्ता अहीर- नाई(Barber. मराठी; न्हावी/नाभिक समाज) जाति के थेI ग्रीक साहित्य में गुप्त राजवंश के संस्थापक को नाई जाति का बताया है | अहीर प्राचीन पशुपालक जाति है | अहीर भारत की सभी जाति में पाए जाते हैंI गुप्त साम्राज्य के संस्थापक श्रीगुप्त मगध के सातवाहन साम्राज्य में सैनिक थेI अपनी वीरता के बलबुते पर उन्होंने मगध सेना में अछी जगह हासिल कीI गुप्त वंश श्रीगुप्त और मगध के कुप्रसिद्ध सातवाहन नरेश चंद्रमासी की पत्नी के वंशज है | अगर एक कुप्रसिद्ध और कदाचित तुलना में वृद्ध नरेश की सुंदर पत्नी नौजवान और वीर पुरुष की ओर आकर्षित होती है तो उसमें कोई विस्मय की बात नहीं हैI यूनानी राजदूत मेगास्थनीज गुप्त वंश को कुलहिना कहते हैंI श्रीगुप्त के पुत्र घटोत्कच का नाम नीचा कुल और शक्ति का प्रतीक है |

श्रीगुप्त के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम कुप्रसिद्ध सातवाहन नरेश चंद्रमासी की हत्या करके शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य की नीव डालते है और पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया |

अपनी वीरता के बलबुते एक साधारण व्यक्ति कैसे शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण कर सकता है इसका ये अच्छा उदाहरण है |
हिंदु धर्म और संस्कृत भाषा का विकास गुप्त काल में हुआI नालंदा जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त काल में हो गई थीI
इतिहासकार डी. आर. रेग्मी के अनुसार गुप्त वंश की उत्पति नेपाल के प्राचीन अहीर-गुप्त राजवंश (गोपाल राजवंश) से हुई थी | इतिहासकार एस. चट्टोपाध्याय ने पंचोभ ताम्र-पत्र के हवाले से कहा कि गुप्त राजा का उद्भव प्राचीन अहीर-गुप्त वंश से हुआ था |

इतिहास:
मौर्य और गुप्त काल भारत का स्वर्ण काल कहा गया हैI इसी शासन काल के कारण उस समय भारत वर्ष सोने की चिड़िया कहलाया। मौर्य शासकों के बाद शक-कुषाण राजाओं का शासन इस देश में रहा, उनमें कनिष्क महान और वीर था। कनिष्क के बाद कोई राजा इतना वीर और शक्तिशाली नहीं हुआ, जो विस्तृत और सुदृढ़ राज्य का गठन करता। इसके परिणाम स्वरुप देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य बन गये थे। किसी में राजतंत्र और किसी में जनतंत्र था। राजतंत्रों में मथुरा और पद्मावती राज्य के नागवंश विशेष प्रसिद्व थे । जनतंत्र शासकों में यौधेय, मद्र, मालव और अजुर्नायन प्रमुख थे । उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों में शक और कुषाणों के राज्य
थे । मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।

साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस अवधि का योगदान आज भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है। कालिदास इसी युग की देन हैं। अमरकोश, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति तथा अनेक पुराणों का वर्तमान रूप इसी काल की उपलब्धि है।
महान गणितज्ञ आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर गुप्त काल के ही उज्ज्वल नक्षत्र हैं। दशमलव प्रणाली का आविष्कार तथा वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला ओर धातु-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों पर आज भी लोगों का आनंद और आश्चर्य होता है।

आरम्भ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए। कालिदास के संरक्षक सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय इसी वंश के थे। यही ‘विक्रमादित्य’ और ‘शकारि’ नाम से भी प्रसिद्ध हैं। नृसिंहगुप्त बालादित्य को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे। बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।
मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।

गुप्तों की जाति
गुप्तवंश की जाति का निर्धारण करना, भारतीय इतिहास की अन्य अनेक जटिलतम समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या है। गुप्तवंश के विभिन्न साधनों तथा स्रोतों के आधार पर, विभिन्न इतिहासकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से अनेक मतों का प्रतिपादन किया है। इन मतों की परस्पर भिन्नता,इसी बात से प्रमाणित हो जाती है कि विद्वानों ने वर्णव्यवस्था के चारों वर्षों से इनकी उत्पत्ति के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। ये विभिन्न मत इस प्रकार हैं

(1) गुप्त शूद्र थे

डॉ० के० पी० जायसवाल के अनुसार गुप्त शूद्र वर्ण के थे। उनका कथन है कि गुप्तों ने किसी भी स्थान पर अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया है अतः वे शूद्र थे- इसीलिये उन्होंने अपनी निम्नता पर आवरण डालने के लिये इस विषय पर मौन-धारण किया हुआ है। डॉ० जायसवाल के मत का दूसरा आधार ‘कौमुदी महोत्सव’ नाटक को वह कथन है जिसमें चण्डसेन (चन्द्रगुप्त प्रथम) को कारस्कर’ कहा गया है तथा कहिं एरिस वर्णस्स से राअसिरि

चण्डसेन (चन्द्रगुप्त प्रथम) को ‘कारस्कर’ कहा गया है तथा ‘कहिं एरिस वर्णस्स से राअसिरि’ अर्थात् ऐसी नीच जाति का पुरुष राजा होने योग्य नहीं है। इस आधार पर डॉ० जायसवाल चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को एक ही व्यक्ति मानते हुए, उसे शूद्र जाति का बतलाते हैं, , ‘कोमुदी महोत्सव’ नाटक में कहा गया है कि चण्डसेन तथा, लिच्छवियों में वैवाहिक सम्बन्ध था तथा लिच्छवी म्लेच्छ थे। अतः उनका सम्बन्ध भी म्लेच्छ चण्डसेन से ही था-यथा ‘ग्लैच्छः लिच्छविभिः सह सम्बन्धः’ इस आधार को भी प्रस्तुत करते हुए डॉ० जायसवाल गुप्तों को शूद्रवंश ही मानते हैं। उनके इस मत का चौथा आधार, वाकाटक महारानी प्रभावती गुप्ता का वह लेख है जिसमें गुप्तों की वंशावली का वर्णन करते हुए, उन्हें ‘धारण’ गोत्र का बताया गया है। डॉ० जायसवाल का कथन है कि आज भी अमृतसर में ‘धारण’ गोत्र के जाट मिलते हैं अतः गुप्तों का गोत्र धारण’ था इसलिये वे निम्नजातीय थे।

आलोचना- जिन तर्कों के आधार पर डॉ० जायसवाल ने गुप्तों को शूद्र घोषित किया है- वे तर्क सारहीन तथा निर्बल हैं। पहली बात तो यह है कि यदि कोई अपनी जाति अथवा गोत्र का उल्लेख न करे तो क्या उसे शूद्र ही माना जायगा? जहाँ तक कौमुदी महोत्सव के उल्लेखों का सम्बन्ध है हम कह सकते हैं कि अधिकांश विद्वान् चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को दो भिन्न व्यक्ति मानते हैं। फिर भी, यदि उन्हें एक व्यक्ति मान भी लिया जाय तो ‘कारस्कर’ शब्द का प्रयोग शूद्र के लिये नहीं, वरन् पापकर्मा व्यक्ति के लिये किया गया है। नाटकीयता की चरमता को प्रदर्शित करने के लिये ही चण्डसेन को कारस्कर’ कहा गया है यह शब्दउसकी जाति का सूचक नहीं है। यदि ‘कारस्कर’ का अर्थ शूद्रा ही मान लिया जाये तो प्रश्न उठता हे कि मगध शासक सुन्दरवर्मन ने शूद्र चण्डसेन को ही गोद क्यों लिया। अतः डॉ० जायसवाल के मत के इस आधार पर बुरी तरह खंडन हो जाता है। ‘धारण’ शब्द से भी यह अर्थ निकालना तर्कसंगत नहीं कि गुप्त जाट थे। भिन्न-भिन्न जाति वालों के गोत्र समान हो सकते हैं क्योंकि गोत्रों का निर्धारण अपने पूर्व-वंशी पुरोहितों के नाम के आधार पर होता था।

गुप्तों की प्राचीनता एवं आदिस्थान
प्राचीनता- गुप्त वंश काफी प्राचीन प्रतीत होता है। अनेक प्राचीनतम् अभिलेखों में गोतिपुत’ (गोप्तिपुत्र) का उल्लेख हुआ है। सातवाहन काले के कई लेखों में गुप्त’ शब्द का प्रयोग किया गया है। परन्तु इतना सब होते हुए भी हम गुप्त वंश की प्राचीनता का निर्धारण करने में अभी तक असफल रहे हैं। इसके अतिरिक्त अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि ‘गुप्त’ नाम के सभी व्यक्ति एक ही वंश के थे अथवा विभिन्न वंशों या उपवंशों से सम्बन्धित थे। ho

गुप्तों का आदिस्थान- गुप्तों की जाति की भांति, गुप्तों के आदिस्थान के विषय में काफी मतभेद हैं। इस सम्बन्ध में तीन प्रमुख मत हैं जिनका वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता हे

(1) कौशाम्बी का प्रदेश- इस मत का आधार कोमुदी महोत्सव है। चन्द्रसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को समान व्यक्ति मानते हुए, डॉ० जायसवाल के मतानुसार, गुप्त राजा प्रारम्भ में भारशिवों के अधीन थे तथा वे कोशाम्बी के निकटवती प्रदेश में शासन करते थे। परन्तुअधिकांश विद्वान् कौमुदी महोत्सव के वर्णन का ऐतिहासिक महत्त्व स्वीकार नहीं करते। इसके अतिरिक्त चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को एक ही व्यक्ति मानना सन्देहरहित नहीं है।

(2) बङ्गाल प्रदेश- इस मंत का आधार, सातवीं शती ई० के चीनी यात्री इत्सिंग का वर्णन है। उसने कहा है कि पाँच सौ वर्ष पूर्व चेलिकेतो नामक राजा ने मृग-शिखावन के निकट एक चीनी उपासना-गृह का निर्माण कराया था। चेलिकेतो को गुप्तवंश का आदि-संस्थापक माना गया है। अतः इस प्रारम्भिक गुप्त राजा का आदिस्थान मृगशिखावन या इसके आस-पास का प्रदेश रहा होगा। इत्सिंग के वर्णन से प्रेरित होकर डॉ० मजूमदार तथा श्री गंगोली ने अपने इस मत का प्रतिपादन किया है कि गुप्तों का आदिस्थान बंगाल का प्रदेश रहा होगा।

परन्तु इस मत को स्वीकार करने में पहली बाधा तो यह है कि मृगशिखावन बंगाल में न होकर, उत्तर प्रदेश या बिहार में स्थित था। दूसरी बात यह है कि गुप्त-राज्य का जो प्रथम विवरण प्राप्त हुआ है उसमें बङ्गाल का नाम नहीं है। इस दृष्टिकोण से बङ्गाल को गुप्तों का आदि निवास स्थान मान लेना तर्कसंगत नहीं है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश अथवा पश्चिमी मगध प्रदेश- इतिहासकार एवं अन्य विद्वानों का बहुतबड़ा वर्ग इस मत का समर्थक है कि गुप्तों का आदिस्थान पूर्वी उत्तर प्रदेश या पश्चिमी मगध में अवस्थित था। श्री जगन्नाथ महोदय का मत है कि मृगशिखावन, नालन्दा के पूर्व में (बंगाल में) नहीं वरन् पश्चिम सारनाथ के निकट था। डॉ० मुकर्जी, एलेन तथा आयंगर के मतानुसार प्रारम्भिक गुप्त पाटलिपुत्र में निवास करते थे। पुराणों द्वारा भी इस बात की पुष्टि होती है। पुराणों में कहा गया है कि प्रारम्भिक गुप्त राज्य में उत्तर प्रदेश तथा मगध के प्रान्त सम्मिलित थे। इस दशा में पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी मगध को गुप्तों का आदिस्थान माना जा सकता है। हमारा मत यह है कि गुप्तवंश के आदिस्थान के उपरोक्त तीनों सिद्धान्तों में विकट मत विभिन्नता है। प्रत्येक मत के पक्ष तथा विपक्ष में अपने प्रमाण दिये जा सकते हैं, अतः इस विषय पर कोई निश्चित मत नहीं दिया जा सकता।

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