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जोधपुर का इतिहास
जोधपुर का इतिहास :- जोधपुर राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। राव जोधा ने 12मई 1459 ई .में आधुनिक जोधपुर शहर की स्थापना की इसकी जनसंख्या 10 लाख के पार हो जाने के बाद इसे राजस्थान का दूसरा “महानगर ” घोषित कर दिया गया था यह यहां के ऐतिहासिक रजवाड़े मारवाड़ की इसी नाम की राजधानी भी हुआ करता था। जोधपुर थार के रेगिस्तान के बीच अपने ढेरों शानदार महलों, दुर्गों और मन्दिरों वाला प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भी है। वर्ष पर्यन्त चमकते सूर्य वाले मौसम के कारण इसे “सूर्य नगरी” भी कहा जाता है। यहां स्थित मेहरानगढ़ दुर्ग को घेरे हुए हजारों नीले मकानों के कारण इसे “नीली नगरी” के नाम से भी जाना जाता था। यहां के पुराने शहर का अधिकांश भाग इस दुर्ग को घेरे हुए बसा है, जिसकी प्रहरी दीवार में कई द्वार बने हुए हैं,हालांकि पिछले कुछ दशकों में इस दीवार के बाहर भी नगर का वृहत प्रसार हुआ है। जोधपुर की भौगोलिक स्थिति राजस्थान के भौगोलिक केन्द्र के निकट ही है, जिसके कारण ये नगर पर्यटकों के लिये राज्य भर में भ्रमण के लिये उपयुक्त आधार केन्द्र का कार्य करता है।
वर्ष 2018 के विश्व के अति विशेष आवास स्थानों मोस्ट एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी प्लेसेज़ ऑफ़ द वर्ल्ड की सूची में प्रथम स्थान पाया था। एक तमिल फ़िल्म, आई, जो कि अब तक की भारतीय सिनेमा की सबसे महंगी फ़िल्मशोगी, की शूटिंग भी यहां हुई थी।
a.) जोधपुर राजघराने दरबार का इतिहास :-
1.) राव गांगदेव (1515-1531):- खानवा के युद्ध में सांगा की सहायता हेतु सेना भेजी थी। जोधपुर शहर में गाँगेलाव तालाब” व “गाँगा की बावड़ी” का निर्माण करवाया।राव गांग अफीम का अत्यधिक शौकीन था, अफीम की पिनक में महल की खिड़की में बैठा शीतल वायु का सेवन कर रहा था कि झपकी आ गई और गिरने से मृत्यु हो गई। वीर विनोद व दयालदास की ख्यात में मालदेव द्वारा हत्या करना कहाँ गया है।
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2.) राव मालदेव :- (1532-1568):- फारसी इतिहासकारों ने मालदेव को हिंदुस्तान का ‘हशमत वाला शासक कहा‘ है इसे हिन्दू बादशाह भी कहा जाता है। सिंहासन पर बैठते मालदेव ने सर्वप्रथम भ्रदाजूण पर अधिकार किया तथा मालदेव का राज्याभिषेक सोजत के किले में हुआ।
मेड़ता के वीरमदेव व मालदेव के मध्य वैमनस्य का कारण दरियाजोश नामक हाथी था जिसे मालदेव प्राप्त करना चाहता था। मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया तथा वीरमदेव शेरशाह की शरण में चला गया।
1541 ई. में बीकानेर के शासक राव जैतसी व मालदेव के मध्य पाहेबा का युद्ध हुआ। राव जैतसी मारा गया तथा उसके पुत्र कल्याणमल ने शेरशाह के दरबार में शरण ली। इस युद्ध में मालदेव का सेनापति कूंपा था जिसे बीकानेर का प्रशासक बनाया। 1536 ई. में जैसलमेर के रावल लूणकरण की पुत्री उमादे से मालदेव का विवाह हुआ जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है। उमादे ने अपना जीवन दत्तक पुत्र राम के पास रहकर गुंदोज में गुजारा और वहीं सती भी हो गई।
गिर्री–सुमेल/ जैतारण का युद्ध (1544)- शेरशाह व मालदेव के मध्य हुआ। मालदेव की सेना का नेतृत्व जैता-गोविंद (कूँपा) के हाथों में था जबकि शेरशाह का सेनापति जलाल खाँ जगवानी था। शेरशाह चालाकी से युद्ध में विजयी रहता है तथा जैता-कूंपा युद्ध में मारे गये।
तारिखे फरिश्ता व मुन्तखुबउल्लुबाब में मिलता है कि शेरशाह ने विजयी होकर कहाँ था कि-“खुदा का शुक्र है कि किसी तरह फतह हासिल हो गई, वरना मैंने एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिंदुस्तान की बादशाहत ही खोई थी।”शेरशाह जोधपुर का प्रशासन खवास खॉ को सौंप देता है तथा मालदेव ने सिवाणा दुर्ग में शरण ली थी। मालदेव ने जोधपुर शहर व दुर्ग का परकोटा बनाया। मालदेव के काल में जैन विद्वान नरसेन ने जिन रात्री कथा की रचना की थी।मालदेव ने मेड़ता के दुर्ग का निर्माण कराया जिसे मालकोट का दुर्ग भी कहते है, इसी के साथ पोकरण व सोजत के दुर्ग का भी निर्माण करवाया था।
3.) राव चन्द्रसेन :- (1562-1581):- इसे भूला–बिसरा राजा, मारवाड़ का प्रताप तथा प्रताप का अग्रगामी कहते हैं। चन्द्रसेन 1570 ई. के नागौर दरबार में उपस्थित हुआ किंतु अपने भाईयों को देख वहाँ से निकल गया। मालदेव के बाद चन्द्रसेन गद्दी पर बैठा इससे उसके भाइयों में बैर हो गया राव रामसिंह की प्रार्थना पर अकबर ने 1563 ई. में हुसैन कुली खाँ का भेज जोधपुर पर अधिकार कर लिया। चन्द्रसेन ने भद्राजूण में शरण ली किंतु वहाँ भी अकबर का अधिकार हो जाने के बाद सिवाणा में शरण ली। नागौर दरबार के बाद अकबर ने बीकानेर के रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक बनाया। 1581 ई. में चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद तीन साल के लिए जोधपुर को खालसे में शामिल कर लिया था।
4.) मोटा राजा उदयसिंह :- (1583-1595 ई.):- मारवाड़ का प्रथम शासक जिसने बादशाही मनसब स्वीकार की। अकबर ने इसे 1000 की मनसब तथा राजा की पदवी दी।1586 ई. में उसने अपनी पुत्री जगत गोसाई का विवाह सलीम से किया जिसमें खुर्रम हुआ। जोधपुर की राजकुमारी होने के कारण इसे जोधाबाई भी पुकारा जाता है। उदयसिंह ने बादशाही सेना के साथ मिलकर सिवाणा के शासक रायमलोत कल्ला पर आक्रमण किया और सिवाणा का दूसरा शाका हुआ।
5.) सूरसिंह :- (1595-1619):- उदयसिंह की दमे की बीमारी से लाहौर में मृत्यु हो गई अतः वहीं पर सूरसिंह को अकबर ने राजा की पदवी देकर मारवाड़ का उत्तराधिकारी बनाया। अकबर ने सूरसिंह की मलिक अंबर की विरूद्ध वीरता पूर्वक लड़ने पर ‘सवाई राजा’ की पदवी दी। मेवाड़ अभियान में खुरर्म की सहायता करने पर सूरसिंह को 5000 जात व 3000 सवार का मनसब दिया गया।
6.) गजसिंह :- (1619-1638):- राजतिलक बहरानुपर में हुआ। मलिक अम्बर को परास्त करने पर इसे 4000 का मनसब व जहाँगीर ने दलथंभन (शत्रु को रोकने वाला) की उपाधि दी। बाद में मनसब 5000 कर दी गई। खुर्रम (शाहजहाँ) ने गजसिंह की बहन मनभावती से शादी की थी। गजसिंह ने पासवान अनारा बेगम के प्रभाव में आकर अमरसिंह राठौड़ के स्थान पर जसंवत सिंह प्रथम को उत्तराधिकारी बनाया।
इसी अमरसिंह व बीकानेर के कर्णसिंह के मध्य 1644 ई. में मतीरे की राड़ नामक युद्ध होता जिसमें अमरसिंह विजय होता है तथा इसी अमरसिंह ने ही शाहजहाँ के दरबार में मीर बहशी सलावत खाँ का वध कर दिया था। नागौर में इसकी 12 खंभों की छतरी बनी हुई है।
7.) जसवंतसिंह :- (1638-1678):-
जन्म – 1626 बुरहानपुर में।
पिता – गजसिंह
माता– सीसोदणी प्रताप दे अथवा रूकमावती।
शाहजहा ने इसे राजा एवं कालांतर में महाराज की पदवी दी।
जसवन्त सिंह ने अमरसिंह की पुत्री का विवाह दारा शिकोह से करवाया तथा धरमत के युद्ध में दारा शिकोह की ओर से लड़ा। जयसिंह के कहने पर औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को माफ कर दिया तथा 7000 की मनसब एवं गुजरात का सुबेदार बनाया। जसवन्त सिंह ने औरंगाबाद के निकट जसवंतपुरा नामक नगर बसाया तथा इसी के पास जसवंत सागर तालाब बनवाया। इसकी हाडी रानी कर्मावती (हाडा-शत्रुशाल की पुत्री) ने जोधपुर नगर से बाहर राई का बाग बनवाया। जसवंत सिंह डिंगल भाषा के अच्छे कवि थे। भाषा भूषण नामक ग्रंथ की रचना की अन्य प्रमुख रचना में आनंद विलास, सिद्धांत बोध सिद्धांत सार तथा गीता महात्म्य प्रमुख है।मुहणौत नैणसी इन्हीं के दरबार में था, जिसे राजस्थान का अबुल फजल कहॉ जाता है। अशि्र्कन ने मारवाड़ रे परगना री विगत को राजस्थान का गजेटीयर कहा है। नैणसी जसंवतसिंह का दीवान था,लेकिन जसवंतसिंह ने इन पर धन गबन का आरोप लगाया जिसके कारण नैणसी ने 1670 ई. में आत्महत्या कर ली। जसंवतसिंह की मृत्यु 1678 में जमरूद में हुई। इनकी मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था “आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया औरंगजेब ने जसवंतसिंह को धर्म विरोधी विचारधारा के कारण कुफ्र के नाम से संबोधित किया था। रूपा धाय का संबंध जसवंतसिंह से है।
8.) अजित सिंह :- (1678-1724 ई.):- अजित सिंह के जन्म से पूर्व ही जसवंतसिंह का देहांत हो चुका था और मारवाड़ को मुगल साम्राज्य में मिलाया जा चुका था।औरंगजेब ने अजित सिंह व उसकी माँ को दिल्ली में कैद कर रखा था। जोधपुर पर मुगल सेना का अधिकार था ऐसी स्थिति में दुर्गादास राठौड़ ने महाराजा अजितसिंह को दिल्ल्ी दरबार से बाहर निकलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दुर्गादास जसवंत सिंह के मंत्री आसकरण का पुत्र था। अंजितसिंह की माता राजसिंह की भतीजी थी अतः राजसिंह ने अजितसिंह की सहायता की उसे 12 गाँवों का पट्टा दिया तथा केलवा का जागीरदार बना दिया। औरंगजेब ने मारवाड़ का टीका अमरसिंह के पौत्र इंद्रसिह को 36 लाख रू. के बदले दे दिया। चांदावत सरदार मोहकमसिंह की स्त्री बाघेली अपनी दूध पिती कन्या को अजितसिंह की धाय के पास छोड़कर स्वयं अजितसिंह को लेकर मारवाड़ की तरफ निकल गई। अजित सिंह को कालिंदी के जयदेव नामक पुष्करणा ब्राह्यण के पास छोड़ा गया। खिंची मुकंददास भी संन्यासी का वेश धरकर पास में ही बस गया। औरंगजेब ने अन्य बालक को वास्तविक राजकुमार समझ कर उसका नाम ‘मोहम्मदरीराज‘ रख दिया।
औरंगजेब के आदेश पर शहजादा अकबर राठौड़ों का दमन करने आया तो दुर्गादास राजसिंह ने उसे मुगल सम्राट बनाने का आश्वासन देकर विद्रोह करवा दिया। अकबर ने 1 जनवरी 1681 को नडोल में अपने को भारत का सम्राट घोषित कर दिया।
1698 ई. में औरंगजेब ने जालौर, सांचोर का सिवाना के परगना जागीर में देकर अजितसिंह को शाही मनसब प्रदान की तथा दुर्गादास को तीन हजारी मनसब प्रदान कर अन्हिलवाडा व पाटन का फौजदार नियुक्त किया।
b.) राठौड़ वंश का इतिहास :-
1.) जोधपुर राजघराने का दरबार :-पूर्व नरेश गजसिंह का 67वां जन्मदिन मंगलवार को उम्मेद भवन पैलेस के राठौड़ दरबार हॉल में शाही परंपरानुसार मनाया गया। दरबार हॉल में पूर्व महाराज, पूर्व जागीरदार, ताजीममीर मसद्दी व ठिकानेदार बैठे थे। शाही दरबार सजा और मारवाड़ के प्रमुख लोगों ने उन्हें नजर निछरावल दी। पूर्व नरेश के पुत्र शिवराजसिंह ने सबसे पहले महाराजा नजर निछरावल कर शुभकामनाएं दीं।
2.) तलवार लेकर पहुंचे पूर्व नरेश :-परंपरागत शाही परिधान पहने पूर्व नरेश प्राचीन तलवार लेकर दोपहर साढ़े बारह बजे राठौड़ दरबार हॉल में पहुंचे। सबसे पहले राजपुरोहितों व राजपंडितों ने परंपरानुसार मंत्रोच्चारण के साथ तिलक आरती की, उसके बाद नजर निछरावल शुरू हुई। इससे पहले उम्मेद भवन पहुंचने पर मुख्य द्वार पर पूर्व नरेश की पुत्री शिवरंजनी ने उनकी आरती की। इस दौरान पौत्री वारा राजे ने तिलक लगाया।
उम्मेद भवन के जनाना हॉल में पूर्व राजमाता कृष्णाकुमारी, हेमलता राजे तथा गायत्री कुमारी मौजूद थीं। पूर्व नरेश ने सुबह सवा नौ बजे मेहरानगढ़ स्थित मां चामुण्डा, कुलदेवी मां नागणेच्या, जरनेश्वरी व चिड़ियानाथजी की गुफा जाकर पूजा-अर्चना की तथा जसवंत थड़ा पर पूर्वजों के स्मारकों पर श्रद्धांजलि अर्पित की।समारोह में लूणी विधायक जोगाराम पटेल, पूर्व सांसद नारायण सिंह माणकलाव, पूर्व विधायक कान सिंह कोटड़ी, चौपासनी शिक्षा समिति के अध्यक्ष करण सिंह उचियारड़ा, मारवाड़ राजपूत सभा के अध्यक्ष हनुमान सिंह खांगटा, डॉ. महेंद्रसिंह नगर, करणी सिंह जसोल, नागणेच्या माता प्रबंध समिति अध्यक्ष उम्मेद सिंह अराबा, जितेंद्र सिंह आउवा सहित कई गणमान्य लोगों ने पूर्व नरेश को जन्मदिन की शुभकामना दी।
3.) सराहनीय सेवाओं के लिए सम्मान :- पूर्व नरेश ने अपने जन्मदिन के मौके पर सराहनीय सेवाओं के लिए कई प्रतिभाओं काे सिरोपाव प्रदान कर सम्मानित किया। शिक्षा के क्षेत्र में मयूर चौपासनी स्कूल के डायरेक्टर आरडी सिंह को हाथ रो कुरब अर हाथी सिरोपाव, गोपालसिंह पीलवा व गुलाबसिंह भाटी को हाथी सिरोपाव रौ कुरब, डॉ. महेंद्रसिंह करमावास, अशोक अबरोल, जेएनवीयू के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. सत्यप्रकाश दुबे व इत्र व्यवसायी महेश गांधी को पालकी सिरोपाव रौ कुरब, वाहन चालक आमसिंह व बालसमंद पैलेस के कर्मचारी भीकाराम को घोड़ा सिरोपाव रौ कुरब देकर सम्मानित किया।
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