कछवाहा गोत्र 

कछवाहा गोत्र  – कछवाहा राजपूत का गोत्र क्या है, कछवाहा वंश की कुलदेवी कौन है, कछवाहा वंश के संस्थापक कौन थे, कछवाहा वंश का अंतिम शासक कौन था, राजस्थान के कछवाहा वंश का इतिहास, कछवाहा वंश की कुलदेवी, कछवाहा वंश की आराध्य देवी, कछवाहा वंश की वंशावली, कछवाहा वंश का संस्थापक, कछवाहा राजपूत, कछवाहा वंश के राजा, कछवाहा राजपूत इन बिहार,

क्षत्रियों में अपनी कुलदेवी के लिए बलि देने व शराब चढाने की परम्परा कब शुरू हुई यह शोध का विषय है| लेकिन क्षत्रिय चिंतकों व विद्वानों के अनुसार क्षत्रियों में पशु बलि व मदिरा चढाने की पूर्व में कोई परम्परा नहीं थी |

और क्षत्रिय मांसाहार व मदिरा से दूर रहते थे, लेकिन क्षत्रियों के शत्रुओं ने उन्हें पथ भ्रष्ट करने के लिए उन्हें इन व्यसनों की ओर धकेला| इस कार्य में क्षत्रियों के ऐसे शत्रुओं ने योगदान दिया, जिन्हें क्षत्रिय अपना शत्रु नहीं, शुभचिंतक मानते थे| लेकिन ऐसे लोग मन ही मन क्षत्रियों से जलते थे और क्षत्रियों का सर्वांगीण पतन करने के लिए पथ भ्रष्ट करना चाहते थे| ऐसे ही इन कथित बुद्धिजीवी शत्रुओं ने क्षत्रियों को पथभ्रष्ट करने के लिए उनसे अपने देवी-देवताओं के लिए पशु-बलि व मदिरा चढाने का कृत्य शुरू करवाया और यह परम्परा शुरू होने के बाद क्षत्रिय मांसाहार व शराब से व्यसनों में पड़ कर पतन के गर्त की ओर स्वत: उन्मुक्त हो गए|

“कछवाहों की वंशावली” पुस्तक की भूमिका में श्री देवीसिंह जी महार ने बड़वों की पुरानी पोथियों में लिखित वास्तविक तथ्यों का उल्लेख करते हुए कछवाहों द्वारा ग्वालियर का शासन खोने का कारण बनी अपनी कुलदेवी के बलि व शराब चढाने व इस कृत्य से कुलदेवी द्वारा नाराज होने की घटना लिखी है जो पाठकों के लिए हुबहू यहाँ प्रस्तुत है |

इतिहासकारों ने ग्वालियर के शासक ईसदेवजी द्वारा राज्य को स्थिर करने के उद्देश्य से अपना राज्य भानजे को व धन ब्राह्मणों को देने का उल्लेख किया है जो पूर्णत: भ्रामक है। बड़वों की पुरानी पोथियों में वास्तविक तथ्यों का उल्लेख मिलता है लेकिन वहाँ तक पहुँचने का इतिहासकार प्रयत्न ही नहीं करते। इन पोथियों के अनुसार ग्वालियर का शासक ईसदेवजी तान्त्रिक ब्राह्मणों के चकर में फंस गया व उसने ग्वालियर के किले में स्थित अपनी कुलदेवी अम्बामाता के बकरों की बलि देने व शराब चढ़ाने का कार्यक्रम आरम्भ कर दिया। अम्बामाता ने स्वप्न में ही ईसदेव को कहा कि इस मदिरा मांस को बन्द कर वरना मैं तेरा राज्य नष्ट कर दूँगी। इस आदेश की ईसदेव ने कोई परवाह नहीं की। एक रोज ईसदेव अपने बहनोई के साथ शिकार के लिए गए जहाँ ईसदेव द्वारा चलाया गया तीर शेर के नहीं लगकर उनके बहनोई के सीने में लगा और उनकी वहीं मृत्यु हो गई। रात को कुलदेवी अम्बामाता ने स्वप्न में फिर कहा- ‘कि देख लिया मेरा प्रकोप, तेरा राज्य तो नष्ट हो चुका है, अब भी सम्भल जा वरना तेरे वंश का नाश कर दूँगी।”

उपयुक्त चेतावनी से भयभीत होकर ईसदेव ने राज्य त्याग का निश्चय किया। वे स्वयं करौली व मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित नादरबाड़ी के समीप जंगलों में रहकर प्रायश्चित के लिए तपस्या करने लगे व कालान्तर में वहीं पर उनका देहान्त हुआ। उनके दोनों लड़के सोढ़देव व पृथ्वीसिंह सेना सहित प्रायश्चित के लिए अयोध्या के लिए रवाना हुए। मार्ग में अमेठी के भर राजा (जो निम्न जाति का था) से उनका युद्ध हुआ और उन्होंने अमेठी में अपना राज्य स्थापित कर दिया। तदुपरान्त सोढ़देव के पुत्र दुलहराय सेना सहित अपने ससुर के निमन्त्रण पर दौसा पहुँचे व आधा दौसा जिस पर बड़गूजरों का अधिकार था, विजय कर लिया। आधा दौसा जिस पर उसके ससुर के अधिकार में था, वह उसके ससुर सिलारसी चौहाण ने दुलहरायजी को दे दिया। तदुपरान्त दुलहरायजी ने अपने पिता सोढ़देवजी को भी दौसा बुला लिया।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सोढ़देवजी ने अमेठी का राज्य अपने पुत्र पृथ्वीसिंह को सौंप दिया। लेकिन अमेठी राज्य का राजतिलक न तो सोढ़देवजी के हुआ और न ही पृथ्वीसिंह के हुआ। इसी प्रकार दौसा का राजतिलक भी सोढ़देवजी के नहीं हुआ। दौसा का राजतिलक सोढ़देवजी के पुत्र दुलहरायजी के व अमेठी का राजतिलक पृथ्वीसिंह के पुत्र इन्द्रमणि के हुआ। इससे यह स्पष्ट होता है कि सोढ़देवजी व पृथ्वीसिंहजी दोनों भाई भी अपने पिता ईसदेवजी के साथ मदिरा-मांस के सेवन में शामिल रहे होंगे, जिसके कारण कुलदेवी के प्रकोप से बचने के लिए उन्होंने राज्य ग्रहण नहीं किया।

कालान्तर में मीणों पर विजय दिलाने पर दुल्हरायजी ने जमुवाय माता को अपनी कुलदेवी बनाया, जिसका उल्लेख इस वंशावली (कछवाहों की वंशावली) में है। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि अपनी पुरानी कुलदेवी अम्बामाता को पुन: प्रसन्न करने का कार्य जयपुर के राजा माधोसिंहजी प्रथम ने किया अथवा प्रतापसिंहजी ने। जयपुर के पूर्व में स्थित पहाड़ी पर उन्होंने अम्बामाता का मन्दिर बनवाया व दादी माँ के रूप उसे पूजित करना प्रारम्भ किया।

बीकानेर स्थित ‘स्टेट आकाइज’ के रेकार्ड के अनुसार अम्बा माता के मन्दिर के पास आमागढ़ का निर्माण जयपुर के राजा प्रतापसिंहजी ने करवाया था, जहाँ पर सैनिक टुकडी रखी गई क्योंकि उस समय जयपुर व आमेर के पहाड़ों में शेर व बघेरे स्वतंत्र रूप से विचरण करते थे अत: मन्दिर के पुजारी की सुरक्षा के दृष्टिकोण से ही आमागढ़ का निर्माण कर वहाँ पर सैनिक टुकडी रखी गई। प्रतापसिंहजी ने मन्दिर के पुजारी को ग्राम पालड़ी मीणा में जागीर (माफी) भी प्रदान की थी। लेकिन बाद के राजा इस परम्परा का निर्वाह नहीं कर पाए इसलिए मन्दिर की सेवा पूजा तो होती रही लेकिन आम कछावों में इसकी पूजा की परम्परा नहीं बन पाई। रियासत के विलीनिकरण के बाद पुजारियों ने भी सेवा पूजा का कार्य बन्द कर दिया |

कच्छवाहा वंश अयोध्या राज्य के इक्ष्वाकु वंश की एक शाखा है। अयोध्या राज्य वंश में महान राजा इक्ष्वाकु, दानी हरिशचन्द्र, सगर, पितृ भक्त भागीरथ, गौ भक्त दिलीप, रघु, सम्राट दशरथ, मर्यादा पुरूषोत्तम भगबान रामचंद्र हुए। भगवान श्री रामचन्द्र जी के ज्येष्ठ पुत्र कुश से इस वंश (शाखा) का विस्तार हुआ है ।

कर्नल टॉड ने इन्हें राम के पुत्र कुश के वंशज होने से कुशवाहा नाम पडना और बाद में बिगडकर कछवाहा हो जाना बताया है। लेकिन किसी भी प्राचीन लेख में इनको कुशवाहा नहीं लिखा गया है, वरन् इन्हें कच्छपघात या कच्छपारि ही लिखा गया है। ग्वालियर और नरवर के कछवाहा राजाओं के कुछ संस्कृत शिलालेख ने उन्हें कच्छपघात या कच्छपार लिखा है, जो प्राकृत में कछपारि और फिर सामान्य बोलचाल में कछवाहा हो गया। कछवाहां की कुल देवी कछवाही (कच्छवाहिनी) थी। अतः इसी कारण इनका नाम कछवाहा हो जाना संभव है।

महाकवि सूर्यमल मिश्रण का मत है कि कुश का वंशज कुर्म था, जिससे कछवाहे कुर्मा व कुर्म भी कहलाते है। जयपुर के राजाओं के कुछ शिलालेखों (मानसिंह वि. सं. 1658 सांगानेर, रायसाल आदिनाथ मंदिर, लीली अलवर राज्य वि. सं. 1803) में अपने को कुर्मवशी लिखा है। पृथ्वीराज रासों ने भी आमेर के राजा पुज्जुन (पंजनदेव) को कुर्म लिखा है। अतः कुर्म व कछवाहा एक ही जाति है।

महाभारत में नागवंशी कच्छप जाति का क्षत्रियों से युद्ध होने का विवरण मिलता है। (महा आदिपर्व श्लोक 71 ) नागों का राज्य ग्वालियर के आसपास था इनकी राजधानी पदमावती थी जो अब नरवर कहलाती है। इस क्षेत्र में बहने वाली उत्तर सिंध व पाहूज के बीच का क्षेत्र अभी भी कछवाहाधार कहलाता है। कहा जाता है कि कछवाहों के पूर्वज अयोध्या छोड़ने के बाद रोहतासगढ़ और वहाँ से नरवर चले गये। नरवर में आकर कच्छपों से युद्ध कर उन्हें हराया और इसी कारण ये कच्छपारि कच्छपघात, कच्छपहन या कच्छपहा कहलाये हो। यही शब्द बाद में बिगड़कर अब कछवाहा कहलाने लगा हो।

क्षत्रियों के प्रसिद्ध 36 राजवंशों में कछवाहा वंश के कश्मीर, राजपुताने (राजस्थान) में अलवर, जयपुर, मध्यप्रदेश में ग्वालियर, राज्य थे। मईहार, अमेठी, दार्कोटी आदि इनके अलावा राज्य, उडीसा मे मोरमंज, ढेकनाल, नीलगिरी, बऊद और महिया राज्य कछवाहो के थे। कई राज्य और एक गांव से लेकर पाँच-पाँच सौ ग्राम समुह तक के ठिकानें, जागीरे और जमींदारीयां थी. राजपूताने में कछवाहो की 12 कोटडीया और 53 तडे प्रसिद्ध थी.

बिहार में कछवाहा वंश का इतिहास – महाराजा कुश के वंशजो की एक शाखा अयोध्या से चलकर साकेत आयी और साकेत से, बिहार मे सोन नदी के किनारे रोहिताशगढ़ (बिहार) आकर वहा रोहताशगढ किला बनाया।

मध्यप्रदेश में कछवाहा वंश का इतिहास – महाराजा कुश के वंशजो की एक शाखा फिर बिहार के रोहताशगढ से चलकर पदमावती (ग्वालियर) मध्यप्रदेश मे आये। नरवर (ग्वालियर ) के पास का प्रदेश कच्छप प्रदेश कहलाता था और वहा आकर कछवाह वंशज के एक राजकुमार तोरुमार ने एक नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर इस क्षेत्र को अपने कब्जे में किया। क्योकि यहा पर कच्छप नामक नागवंशीय क्षत्रियो की शाखा का राज्य था । (महाभारत आदि पर्व श्लोक 71) नागो का राज्य ग्वालियर के आसपास था । इन नागो की राजधानी पद्मावती थी, पदमावती राज्य पर अपना अधिकार करके सिहोनिया गाँव को अपनी सर्वप्रथम राजधानी बनायी। यह मध्यप्रदेश मे जिला मुरैना मे पड़ता है।

ग्वालियर के कच्छवाहा – कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली। सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रसिद्ध दुर्ग का निर्माण कराया। नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रसिद्ध नायक है। उसका विवाह पूगल कि राजकुमारी मारवणी के साथ हुवा था। ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परम प्रतापी महाराजाधिराज बज्रदामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धार कर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जीत लिया। बज्रदामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी। मंगल राज के दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए, किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला। सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद नरवर (ग्वालियर) राज्य के राजा ईशदेव जी थे और राजा ईशदेव जी के पुत्र सोढदेव के पुत्र, दुल्हराय जी नरवर (ग्वालियर) राज्य के अंतिम राजा थे। सोढदेव की मृत्यु व दुल्हेराय के गद्दी पर बैठने की तिथि माघ शुक्ला 7 वि.संवत 1154 है I ज्यादातर इतिहासकार दुल्हेराय जी का राजस्थान में शासन काल वि.संवत 1154 से 1184 के मध्य मानते है।

Conclusion:- दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हमने कछवाहा गोत्र  के बारे में विस्तार से जानकारी दी है। इसलिए हम उम्मीद करते हैं, कि आपको आज का यह आर्टिकल आवश्यक पसंद आया होगा, और आज के इस आर्टिकल से आपको अवश्य कुछ मदद मिली होगी। इस आर्टिकल के बारे में आपकी कोई भी राय है, तो आप हमें नीचे कमेंट करके जरूर बताएं।

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