महारानी लक्ष्मीबाई कौन थी

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महारानी लक्ष्मीबाई कौन थी

महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म एवं परिचय –

महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जानी जाती थीं।

महारानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय –

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था इनके पिता का नाम ‘मोरोपंत तांबे’ और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था बाजीराव मनु को प्यार से ‘छबीली’ बुलाने थे।

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का बचपन –

रानी लक्ष्मी बाई का असली नाम मणिकर्णिका था, बचपन में उन्हें प्यार से मनु कह कर बुलाते थे उनका जन्म वाराणसी में 19 नवंबर 1828 मराठी परिवार में हुआ था वह देशभक्ति ,बहादुरी, सम्मान का प्रतीक है इनके पिता मोरोपंत तांबे मराठा बाजीराव की सेवा में थे और उनकी माता एक विद्वान महिला थी छोटी उम्र में ही रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी माता को खो दिया था उसके बाद उनके पिता ने उनका पालन पोषण किया, बचपन से ही उनके पिताजी ने हाथियों और घोड़ों की सवारी और हथियारों का उपयोग करना सिखाया था नाना साहिब और तात्या टोपे के साथ रानी लक्ष्मीबाई पली-बढ़ी थी।

झांसी की रानी लक्ष्मी विवाह –

सन्‌ 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया वे विधुर थे सन्‌ 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ सन्‌ 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया।

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का बचपन –

रानी लक्ष्मी बाई का असली नाम मणिकर्णिका था, बचपन में उन्हें प्यार से मनु कह कर बुलाते थे उनका जन्म वाराणसी में 19 नवंबर 1828 मराठी परिवार में हुआ था वह देशभक्ति ,बहादुरी, सम्मान का प्रतीक है इनके पिता मोरोपंत तांबे मराठा बाजीराव की सेवा में थे और उनकी माता एक विद्वान महिला थी छोटी उम्र में ही रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी माता को खो दिया था उसके बाद उनके पिता ने उनका पालन पोषण किया, बचपन से ही उनके पिताजी ने हाथियों और घोड़ों की सवारी और हथियारों का उपयोग करना सिखाया था नाना साहिब और तात्या टोपे के साथ रानी लक्ष्मीबाई पली-बढ़ी थी।

झांसी का बुलंद किला –

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन की कहानी
झांसी के किले की नींव आज से करीब कई साल पहले 1602 में ओरछा नरेश वीरसिंह जूदेव के द्वारा रखी गई, आपको बता दें कि ओरछा (मध्यप्रदेश में एक कस्बा) झांसी से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बंगरा पहाड़ी पर 15 एकड़ में फैले इस विशालकाय किले को पूरी तरह तैयार होने में 11 सालों का समय लगा और यह 1613 में बनकर तैयार हुआ किले में 22 बुर्ज और बाहर की ओर उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम दिशा में खाई है, जो दुर्ग की ओर ढ़ाल बनकर आक्रमणकारियों को रोकती हैं यही कारण है कि इस किले की पूरे संसार में इतनी चर्चा होती है पहले झांसी ओरछा नरेश के राज्य में थी जो बाद में मराठा पेशवाओं के आधीन आई मराठा नरेश गंगाधर राव से शादी होने के बाद मणिकर्णिका झांसी आकर उनको लक्ष्मीबाई कहा गया इसलिए उनके बलिदान के साथ उनकी छाप किले में हर जगह देखने को मिलती है।

स्वतंत्रता के लिए प्राणों का बलिदान –

17 जून को ह्यूरोज ने ग्वालियर पर कब्जा कर लिया लेकिन झांसी की रानी ने आत्म-समर्पण का रास्ता ना चुन कर सेना का सामना करने का निश्चय किया झांसी की रानी अपने घोड़े पर नहीं बल्कि किसी और घोड़े पर बैठ कर युद्ध लड़ रही थीं वह पुरुषों के कपड़े में थीं इसीलिए घायल होने के बाद उन्हें कोई पहचान नहीं पाया लक्ष्मीबाई के विश्वसनीय सहायक उन्हें लेकर पास के एक वैद्य के पास ले गए और उन्हें गंगाजल पिलाया गया रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा थी कि उनके शव को कोई भी अंग्रेज हाथ ना लगा पाए 23 वर्ष की छोटी सी आयु में ही लक्ष्मीबाई ने अपने प्राणों की आहुति दे दी कुछ समय पश्चात उनके पिता मोरोपंत तांबे को भी अंग्रेजों द्वारा फांसी दे दी गई लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव अपनी मां के सहायकों के साथ वहां से भाग गए हालांकि उन्हें कभी उत्तराधिकार नहीं मिला लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें पेंशन देने की व्यवस्था की थी दामोदर राव इन्दौर में जाकर रहने लगे 28 मई, 1906 को 58 वर्ष की उम्र में दामोदर राव का भी निधन हो गया उनके वंशजों ने उपनाम के रूप में झांसीवाले ग्रहण किया |
रानी लक्ष्मीबाई एक वीर और साहसी महिला थीं भले ही उनकी उम्र ज्यादा नहीं थी लेकिन उनके निर्णय हमेशा परिपक्व हुआ करते थे अंतिम श्वास तक वह अंग्रेजों से लोहा लेती रहीं उन्होंने स्वतंत्रता के लिए प्रायसरत लोगों के लिए एक आदर्श उदाहरण पेश किया था ह्यूरोज जो उनके शत्रु से कम नहीं थे, ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि उन्होंने जितने भी विरोधियों का सामना किया उनमें सबसे अधिक खतरा उन्हें लक्ष्मी बाई से ही था वह सबसे अधिक साहसी और दृढ़ निश्चयी थीं |

मलमल की साड़ी –

रानी लक्ष्मीबाई शामियाने के एक कोने में एक पर्दे के पीछे बैठी हुई थीं तभी अचानक रानी के दत्तक पुत्र दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया
लैंग की नज़र रानी के ऊपर गई बाद में रेनर जेरॉस्च ने एक किताब लिखी, ‘द रानी ऑफ़ झाँसी, रेबेल अगेंस्ट विल.’
किताब में रेनर जेरॉस्च ने जॉन लैंग को कहते हुए बताया, ‘रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं अपनी युवावस्था में उनका चेहरा बहुत सुंदर रहा होगा, लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था मुझे एक चीज़ थोड़ी अच्छी नहीं लगी, उनका चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा गोल था हाँ उनकी आँखें बहुत सुंदर थीं और नाक भी काफ़ी नाज़ुक थी उनका रंग बहुत गोरा नहीं था. उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था, सिवाए सोने की बालियों के उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उनके शरीर का रेखांकन साफ़ दिखाई दे रहा था जो चीज़ उनके व्यक्तित्व को थोड़ा बिगाड़ती थी- वो थी उनकी फटी हुई आवाज़.’

ब्रिटिश सैनिक –

उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब ‘रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया’ में लिखा, “अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, ‘मेरे पीछे आओ.’ पंद्रह घुड़सवारों का एक जत्था उनके पीछे हो लिया वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, ‘दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी, कैच हर.'”
रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफ़र तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंचे. जगह थी कोटा की सराय |
लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का-सा दर्द महसूस हुआ, जैसे किसी सांप ने उन्हें काट लिया हो |
एक अंग्रेज़ सैनिक ने जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी वो तेज़ी से मुड़ीं और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार लेकर टूट पड़ीं

झांसी की लड़ाई – सन1857-1858 का भारतीय विद्रोह –

झांसी के महल को ना छोड़ने के कारण झांसी ब्रिटिश शासन के लिए विद्रोह का केंद्र बिंदु बन गया था ईस्ट इंडिया कंपनी किसी भी तरह झांसी के महल, किले पर कब्ज़ा करना चाहती थी
रानी लक्ष्मी बाई इस बात को पहले से ही जानती थी इस लिए उन्होंने अपनी मजबूत सेना तैयार करनी शुरू कर दी थी इस देना में महिलाओं को सेना में लिया गया था और उन्हें भी युद्ध के लिए तलवारबाज़ी, घुड सवारी का प्रशिक्षण दिया गया था।
सितम्बर से अक्टूबर 1857 के बिच झांसी पर पड़ोसी राज्यों जैसे ओरछा तथा दतिया ने भी कब्ज़ा करने की कोशिश की पर रानी लक्ष्मी बाई के साहस और सेना ने उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया।
उसके बाद जनवरी 1858 में ब्रिटिश सेना ने झांसी पर आक्रमण किया। झांसी का युद्ध लगभग 2 हफ़्तों तक चला परन्तु अंत में ब्रिटिश सेना ने झांसी के राज्य को कब्ज़े में कर लिए और घेर लिया। मजबूर हो कर झांसी की रानी को पुत्र दामोदर राव को वहां से लेकर किले को छोड़ना पड़ा।

झांसी की रानी की कविता –

सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी गई कविता झांसी की रानी की बहुत ही प्रचलित है झांसी की रानी की देशभक्ति के बारे में बहुत सारे गीत लिखे गए हैं।
मुर्दों में भी जान डाल दे,
उनकी ऐसी कहानी है
वो कोई और नहीं,
झांसी की रानी हैं

अपने हौसले की एक कहानी बनाना,
हो सके तो खुद को झांसी की रानी बनाना।

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।

मातृभूमि के लिए झांसी की रानी ने जान गवाई थी,
अरि दल कांप गया रण में, जब लक्ष्मीबाई आई थी।

हर औरत के अंदर है झाँसी की रानी,
कुछ विचित्र थी उनकी कहानी
मातृभूमि के लिए प्राणाहुति देने को ठानी,
अंतिम सांस तक लड़ी थी वो मर्दानी।

रानी लक्ष्मी बाई लड़ी तो,
उम्र तेईस में स्वर्ग सिधारी
तन मन धन सब कुछ दे डाला,
अंतरमन से कभी ना हारी।

रानी लक्ष्मी बाई के पति की मृत्यु –

2 साल बाद सन 1853 में बीमारी के चलते हुए उसके पति की मृत्यु हो गई थी बेटा और पति की मृत्यु के बाद भी रानी लक्ष्मीबाई हिम्मत नहीं हारी जब उनकी पति की मृत्यु हुई थी तभी रानी लक्ष्मीबाई की उम्र केवल 25 वर्ष थी 25 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने सारी जिम्मेदारियां अपने ऊपर ले ली थी।

सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया।

राजस्थान के सम्राट

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