वैश्य के गोत्र

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वैश्य का हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में तीसरा स्थान है। इस वर्ण के लोग मुख्यत: वाणिज्यिक व्यवसाय और कृषि करते थे। हिंदुओं की जाति व्यवस्था के अंतर्गत वैश्य वर्णाश्रम का तीसरा महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस वर्ग में मुख्य रूप से भारतीय समाज के किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं।

‘वैश्य’ शब्द वैदिक ‘विश्’ से निकला है। अर्थ की दृष्टि से ‘वैश्य’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है, जिसका मूल अर्थ “बसना” होता है। मनु के ‘मनुस्मृति’ के अनुसार वैश्यों की उत्पत्ति ब्रह्मा के उदर यानि पेट से हुई है। जबकि कुछ अन्य विचारों के अनुसार ब्रह्मा जी से पैदा होने वाले ब्राह्मण, विष्णु से पैदा होने वाले वैश्य, शंकर से पैदा होने वाले क्षत्रिय कहलाए; इसलिये आज भी ब्राह्मण अपनी माता सरस्वती, वैश्य लक्ष्मी, क्षत्रिय माँ दुर्गे की पूजा करते है।

वैश्य हिंदू वर्ण व्यवस्था के चार वर्णों में से एक है। वैश्य हिन्दू जाति व्यवस्था के अंतर्गत वर्णाश्रम का तृतीय एवं महत्त्वपूर्ण स्तंभ है। इस समुदाय में प्रधान रूप से किसान, पशुपालक, और व्यापारी समुदाय शामिल हैं।

व्युत्पत्ति 

‘वैश्य’ शब्द वैदिक ‘विश्’ से आया है, जिसका तात्पर्य है- ‘प्रजा’। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से ‘वैश्य’ यह शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है, जिसका आधारभूत अर्थ “बसना” होता है। मनुस्मृति के मुताबित वैश्यों की उत्पत्ति ब्रह्मा के उदर अर्थात पेट से हुई है। हालाकि कुछ अन्य विचारों के अनुसार ब्रह्मा से जन्मने वाले ब्राह्मण हुए और विष्णु भगवान से पैदा होने वाले वैश्य कहलाये और शंकर जी जिनकी उत्पत्ति हुई वो क्षत्रिय कहलाए. आज भी इसलिये ब्राह्मण वर्ण माँ सरस्वती (विद्या की देवी), वैश्य वर्ण माँ लक्ष्मी (धन की देवी), क्षत्रिय माँ दुर्गे (दुष्टों को विनाश करने वाली) को पूजते है।

वैश्य वर्ण का इतिहास 

वैश्य समुदाय का इतिहास जानने से पूर्व हमें यह जानना जरुरी है कि वैश्य शब्द आखिर आया कहाँ से दरअसल वैश्य संस्कृत शब्द विश् से आया है। विश् शब्द का तात्पर्य है प्रजा। प्राचीन काल में प्रजा (अर्थात समाज) को विश् नाम से संबोधित किया जाता था। इसके मुख्य संरक्षक को विशपति (यानि राजा) कहते थे, जो चयन से चुनाव के माध्यम से किया जाता था।
मनु के अनुसार चार प्रधान सामाजिक वर्ण शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय तथा ब्राह्मण थे, जिनमें सभ्यता के विकास के संग-संग नए व्यवसाय भी बाद में जुड़ते चले गए थे। शूद्रों के आखेटी कम्युनिटी में अनसिखियों को बोझा व सामान ढोने का कार्य दिया जाता था। बाद में उसी समुदाय के लोगो को जब कुछ लोगों ने कृषि क्षेत्र में छोटा-मोटा मजूरी करने का कार्य सीखा, तो वह आखेट करने के बजाय कृषि कार्य करने लगे। ज्यादातर ऐसे लोगों में जिज्ञासा का आभाव, अज्ञानता और जिम्मेदारी सम्भालने के प्रति बेपरवाही की मानसिकता रही। वें अपनी तब की जरूरतों की पूर्ति के अतिरिक्त कुछ और सोचने में अक्षम और निष्क्रिय रहे। उनके अन्दर स्वयं से बात करने की सीमित क्षमता थी, जिस वजह से वह समुदाय की चीजो का दूसरे समुदायों के संग लेन-देन नहीं कर सकते थे।

धीरे-धीरे आखेटी सामज किसानी करने लगा। समाज के लोग कृषि औरर कृषि से सम्बंधित अन्य व्यव्साय भी सीखने लगे। समुदाय के लोगों ने भोजन और कपडा आदि की निजी आवश्यकताओ की आपूर्ति भी कृषि के उत्पादकों से करनी प्रारंभ कर दी थी। उन्होंने कृषि प्रधान जानवर/पशु पालने आरम्भ किया और उनको अपनी सम्पदा में सम्मिलित कर लिया। श्रम के स्थान पर पशुओ तथा कृषि से उत्पन्न उत्पादकों का लेन-देन होने लगा। मानव समुदाय बंजारा जीवन त्यागकर कृषि तथा जल श्रोतो (नदियाँ, तालाव इत्यादि) के निकट रहने लगे। इस तरह का जीवन ज्यादा सुखप्रद था।

ज्यों-ज्यों क्षमता और सामर्थ्य बढ़ा, उसी के मुताबित नये किसान व्यवसायी समुदाय के पास शूद्रों (शुद्र, हिन्दू वर्ण व्यवस्था में चतुर्थ स्थान) से ज्यादा साधन आते गये और वह एक ही जगह पर निवास कर सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे। अब उनका प्रमुख उद्देश्य संसाधन संग्रहित करना और उनको वैश्य व्यापारी इस्तेमाल में लाकर ज्यादा सुख-सम्पदा एकत्रित करना था। इस व्यवसाय को संचालित करने हेतु व्यापारिक कौशल्या, सूझबूझ, व्यवहार-कुशलता, वाक्पटुता, परिवर्तनशीलता, खतरा अथवा जोखिम उठाने की क्षमता व साहस, धीरज, परिश्रम की जरुरत थी।

जिनमे इस प्रकार गुण निहित अथवा या जिन्होंने इस प्रकार की क्षमता हासिल कर ली थी, वह वैश्य वर्ग में शामिल हो गया। वैश्य कृषि-खेती, उत्पादक वितरण, पशुपालन और कृषि से जुडी औज़ारों व उपकरणों के संधारण (रखरखाव) तथा क्रय-विक्रय का व्यवसाय करने लगे। उनका जीवन शूद्र वर्ग के लोगो से अधिक आरामदायक हो गया और उन्होंने शूद्र जाति के लोगो को अनाज, कपड़ा, रहने का व्यवस्था आदि की जरुरी सुविधायें प्रदान कर अपनी मदद के लिये निजी अधिकार में रखना प्रारंभ कर दिया। इस तरह सभ्यता के विकास के संग जब वस्त्र, अनाज, रहवास आदि के बदले पैसे देने की रिवाज विकसित होने लगी तो उसी के संग ही ‘सेवक’ व्यव्साय का भी जन्म हुआ। बेशक, समाज में वैश्यों का जीवन स्तर (स्टेटस) और मान-सम्मान शूद्रों से प्रकृष्ट था। आज हमारा वैश्य समुदाय एक प्रशिक्षशित वर्ग के रूप में स्वयं को स्थापित कर चूका है।

पारंपरिक कर्तव्य 

हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार वैश्य कृषि और पशुपालन में पारंपरिक भूमिका निभायी थी, लेकिन समय के साथ वे भूमि मालिक, व्यापारियों और साहुकार आदि के रूप में आये। वैश्य, ब्राह्मण / बहूण और क्षत्रिय /छेत्री वर्णों के सदस्यों के साथ, द्विव्या का दावा करते हैं। भारतीय और नेपाली व्यापारियों को क्रमशः दक्षिण पूर्व एशिया और तिब्बत क्षेत्रों में हिंदू संस्कृति के प्रसार के लिए श्रेय दिया गया है।
ऐतिहासिक रूप से, वैश्य अपने परंपरागत व्यापार और वाणिज्य के अलावा अन्य भूमिकाओं में शामिल रहे हैं। इतिहासकार राम शरण शर्मा के अनुसार, गुप्त साम्राज्य एक वैश्य राजवंश था जो “दमनकारी शासकों के खिलाफ प्रतिक्रिया का परिणाम था।”

वैश्यों का आधुनिक समुदाय 

वैश्य वर्ण में कई जाति या उप-जातियाँ होतीहैं, जिनमे विशेष रूप से अग्रहरि, अग्रवाल, बार्नवाल, गहौइस, कसौधन, महेश्वरी, खांडेलवाल, महावार, लोहानस, ओसवाल, रौनियार, आर्य वैश्य आदि है।

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